Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 315
________________ तृतीय उल्लासः १६३ खणमेत्त जइ संझाइ होइ ण व होइ वीसामो ॥१८॥ (नुदत्यनामना: श्वभूर्मा गृहमरे सकले । क्षणमात्रं यदि सन्ध्यायां भवति न वा भवति विश्रामः ॥) अत्र सन्ध्या सङ केतकाल इति तटस्थं प्रति कयाचिद् द्योत्यते । सुव्वइ समागमिस्सदि तुज्झ पियो अज्ज.पहरमेत्तण । एमेन कित्ति चिठ्ठसि ता सहि सज्जेस करणिज्जं ॥१६॥ (श्रूयते समागमिष्यति तव प्रियोऽध प्रहरमात्रेण। एवमेव किमिति तिष्ठसि तत् सखि ! सज्जय करणीयम् ॥ अत्रोपपति प्रत्यभिसतु प्रस्तुता न युक्तमिति कयाचिन्निवार्यते । क्षणमात्रं यदि सन्ध्यायां भवति न वा भवति विश्रामः ॥१८॥ तटस्थं सङ्कताथिनं पुरुषं, द्योत्यत इत्यनन्तरमित्युपपतित्वेन निश्चितपुरुषसन्निधिवैशिष्टयज्ञानादेव व्यज्यत इति शेषः । अत्राप्या पदभरपदयोर्लाक्षणिकत्वेन लक्ष्यस्य लक्ष्यार्थव्यङ्गयस्य च प्रकृतव्यङ्गयव्यञ्जकत्वं बोध्यम् . 'सुव्वइ ति- "श्रूयते समागमिष्यति तव प्रियोऽद्य प्रहरमाण । एवमेव किमिति तिष्ठसि तत् सखि ! सज्जय करणीयम् ॥१९।। .यहाँ 'संध्या का समय संकेतकाल है' यह व्यङ्गय दूत आदि के रूप में छिपकर पाये हुए किसी तटस्थ व्यक्ति के प्रति गुरुजन आदि की सन्निधि के वैशिष्टय से प्रकट होता है। गुरुजन आदि की सन्निधि के कारण वह दूतादि के रूप में प्रच्छन्न तटस्य व्यक्ति को स्पष्ट नहीं बता सकती है। इसलिए व्यङ्गय का सहारा लेती है। (यह व्याख्या अन्य टीकाकारों के अनुसार है) "अत्र......द्योत्यते” यहाँ आये हुए तटस्थ शब्दका अर्थ है संकेतार्थी पुरुष । 'द्योत्यते' का अर्थ 'व्यज्यते' है। 'धोत्यते' के बाद 'उपपतित्वेन निश्चितपूरुषसन्निधिवैशिष्टय ज्ञानादेव' इस पद का शेष मानना चाहिए। इस तरह उपपति के रूप में निश्चित उस संकेतार्थी तटस्थ पुरुष के सन्निधि वैशिष्टय के ज्ञान से 'संध्या का समय संकेत काल है' यह व्यङ्गय प्रकट होता है। (यहाँ टीकाकार ने कई अन्य स्थलों की तरह अपनी नयी उद्भावना प्रकट की है। यहाँ भी 'आद्र' पद दया अर्थ में और 'भर' पद 'अरुचिकर' अर्थ में लाक्षणिक है इसलिए यहाँ लक्ष्यार्थव्यञ्जकता है और साथ-साथ उस लक्ष्यार्थ अर्थात श्वश्रू के निर्दय होने रूप लक्ष्यार्थ से अभिव्यक्त । इसलिए किसी बहाने से भी छुटकारा मिलना सम्भव नहीं है "इस व्यङ्गय से "संध्याकाल संकेतकाल है" यह व्यङ्गय निकलता है इसलिए यहाँ व्यङ्गयार्थ में भी व्यञ्जकता है। ७-प्रस्ताववैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण-'सुब्वइ इति' "श्रूयते.......करणीयम्" । 'सखि, सुनते हैं कि तेरा पति आज एक पहर के अन्दर आने वाला है, तो इस तरह क्यों बैठी हो, उनके योग्य साज-सामान जुटाओ"। १'म नयस्यन्यत्' इति पाठान्तरम् -किवा 'नोदयत्यनामना' इत्यपि पाठः।

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