Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 314
________________ १६२ काव्य-प्रकाशः किं चैतस्मिन् सुरतसुहृदस्तन्वि ते वान्ति वाता, येषामग्रे सरति कलिता काण्डकोपो मनोभूः ॥१७॥ अत्र रतार्थं प्रविशेति व्यङ्गयम् । गोलले प्रणोल्लमा अत्ता मं घरभरम्मि सलम्मि । परित्यज्य, नर्मदापदोपादानेन ललनानुकूलता व्यज्यते, अग्रे मरति अग्रे गच्छत्यग्रेसर इवाऽऽचरति वा, कलिताकाण्डकोप इति । तथा चेदानीमपि सुरतवैमुख्ये कुपितो मीनकेतुः किं किं न करिष्यतीति व्यज्यतेऽकाण्डपदेना विधीयमानतदपराधायामपि त्वयि बाधां विधास्यत्येवेति व्यज्यते, मनोभूरित्यनेन नान्यतः कुतश्चिदागत्य बांधां विधास्यति अपि तु मनःसन्निहित (?) एवास्ते इति नान्यत्र तद्द्भीत्या गमनेनापि निस्तार इति व्यज्यते । श्रत्रेति । वर्ण्यमानस्य नर्मदा प्रदेशस्योक्तविशेषणमाहात्म्यादिति शेषः । अत्र वाङ्कुरितपदादीनां लाक्षणिकतया लक्ष्यार्थस्योद्देशादिपदव्यङ्ग्य निर्जनत्वाद्यर्थानामप्युक्तव्यञ्जकत्वं बोध्यम् । 1 गोल्लइ इति - नोदयत्यनार्द्र मनाः श्वश्रूम गृहभरे सकले । नर्मदा, जो असाधारण रतिसुख प्रदान करें यह प्रकट होता है। उसका ही यह उद्देश हैं। 'नर्मदा' पद से पूर्वोक्त व्यङ्गय को प्रकट करने के लिए ही 'नर्मदा' नदी के अन्य रेवादि पर्याय को छोड़कर 'नर्मदा' पद का पद्य में उपादान किया गया है। इस तरह 'नर्मदा' पद के उपादान से यहाँ ललनाओं के लिए अनुकूलता (सौविध्य) व्यक्त होती है । 'अग्रे सरति' का अर्थ है अग्रे गच्छति, इससे अग्रेसर इव आचरति मुखिया ( सेनापति) के समान आचरण करता है। यह व्यङ्गय होता है । 'कलिता काण्ड कोप:' से बे मोके क्रोध करने वाला यह अर्थ अभिव्यञ्जित होता है । इस प्रकार यह अभिव्यक्त होता है कि अभी सुरत की उपेक्षा करने पर कुपित मीनकेतु क्या क्या नहीं करेगा यह व्यञ्जना द्वारा प्रकट होता है । 'अकाण्ड' पद से जिसका कि बिना अवसर के और बिना कारण के यह अर्थ है, यह व्यक्त होता है कि यद्यपि तुमने उसका अपराध नहीं किया है तथापि वह तुझ पर नाराज होकर तुझे कष्ट पहुंचायेगा ही । "मनोभूः" ( मन से ही उत्पन्न होनेवाला) इस पद से यह व्यक्त होता है कि कहीं और जगह से आकर वह बाधा नहीं पहुंचायेगा किन्तु मन में सन्निहित ही विराजमान है। इसलिए और जगह उसके भय से भाग कर जाने पर भी रक्षा नहीं हो सकती । यहाँ नर्मदा के तट स्थान में लगाये गये विशेषणों की महिमा से 'सुरत के लिए कुञ्ज के भीतर चलो, यह ( वाच्य वैशिष्ट्य से ) व्यङ्गय है । यहीं अङ्क ुरित आदि पदों के लक्षणिक होने के कारण लक्ष्यार्थं में उद्देश आदि पद से व्यङ्गय निर्जनादि अर्थ में भी उक्त व्यङ्ग्यार्थं की व्यञ्जकता है । इसलिए यहाँ भी त्रिविध व्यञ्जकता है । (विशेष) वाक्य और वाच्य वैशिष्ट्य का अन्तर केवल विवक्षा पर निर्भर है। जब वाक्य का प्राधान्य विवक्षित हो तब वही पद्य 'वाक्य वैशिष्ट्य आर्योव्यञ्जना का उदाहरण बन जाता है और जब वाच्य अर्थ का प्राधान्य विवक्षित होता है तब वही 'वाच्यवैशिष्ट्य आर्थीव्यञ्जना' का उदाहरण बन जाता है। यह बात वक्तृवैशिष्ट्य और बोद्धव्य वैशिष्ट्य में आर्थी व्यञ्जना में भी लागू होती है। वक्ता की प्रधान विवक्षा में वक्तृवैशिष्ट्य और बोद्धव्य की प्रधानविवक्षा में बौद्धव्य वैशिष्ट्य आर्थी व्यञ्जना होती है । ६. अन्य सन्निधि के वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण :-गोल्लइ इति, नोदयति विश्रामः । (अनार्द्रा मना: ) निर्दय सास घर के सारे काम मुझ से कराती है इसलिए कभी मिलता है तो सन्ध्या के समय थोड़ा सा विश्राम मिल जाता है, नहीं तो वह भी नहीं मिलता।

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