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काव्य-प्रकाशः
अन्यत्र यूयं कुसुमावचायं कुरुध्वमत्रास्मि करोमि सख्यः ।
नाहं हि दूरं भ्रमितुं समर्था प्रसीदतायं रचितोऽञ्जलिर्वः ॥ २० ॥
निवार्यत इत्यनन्तरमिति प्रस्ताववैलक्षण्याद् व्यज्यत इति शेषः, अत्रापि प्रहरमात्रपदस्य लक्षणया प्रहरोत्तरार्थकतया एवमेव पदस्य स्वाच्छन्द्यार्थं कतया च लक्ष्यस्य तद्वयङ्ग्यस्य च व्यञ्जकत्वं ज्ञेयम् । अन्यत्र यूयमिति -
न चात्रावचयमिति रूपापत्तिः 'चेस्तु हस्तार्थेन' इति सूत्रेण हस्त प्राप्येऽर्थे प्रतिपाद्ये प्रयोगात्, तेनान्यत्र हस्तप्राप्यं कुसुममिति तासां प्रलोभनम् एतेन हस्तप्राप्य कुसुमाभावादत्रान्योऽपि नायास्यतीति विजनोऽयं देश इत्याश्वस्तां प्रति व्यज्यतेऽत एव विविक्तोऽयं देश इति वक्ष्यति । अस्मीत्यहमर्थक मव्ययं, ननु हस्ताप्राप्यकुसुमावचयस्त्वयाऽपि कथं कर्त्तव्य इति तासामाशङ्कां मनसि कृत्याऽऽह - नाहमिति ।
यहाँ उपपति के पास जाने के लिए उद्यत किसी अभिसारिका को उसकी सखी मना कर रही है कि अब वहाँ जाना उचित नहीं है ।
यहाँ भी 'निवार्यते' इस पद के बाद 'प्रस्ताव वैलक्षण्य द् व्यज्यते" इन पदों का शेष मानना चाहिए । इस प्रकार इसका अर्थ होगा कि पूर्वोक्त व्यङ्गय प्रस्तावविशेष के कारण प्रकट होता है ।
यहाँ भी लक्ष्यार्थव्यञ्जकता और व्यङ्गयार्थव्यञ्जकता है जैसे 'प्रहरमात्र' पद लक्षणा के द्वारा अधिक से अधिक एक प्रहर रूप अर्थ बताता है इसलिए यहाँ लक्ष्यार्थं में व्यञ्जकता है । 'एवमेव' पद से 'स्वच्छन्दता' अर्थं व्यङ्गय है और उस व्यङ्गय से पूर्व निर्दिष्ट व्यङ्गय प्रकट होता है इसलिए व्यङ्गघार्थ में व्यञ्जकता भी यहाँ है ।
८- देश के वैशिष्ट्य में व्यञ्जना का उदाहरण - "अन्यत्र यूयम्" इति ।
हे सखियो, तुम कहीं और जाकर फूल चुनो। यहाँ मैं चुन रही हूं। मैं दूर तक चलने में समर्थ नहीं है । इसलिए तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। मुझ पर कृपा करो (मुझे यहीं अपना काम करने दो ) ।
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"हाथ से चुनना " इस अर्थ में "हस्तादाने चरस्तेये" ( पा०सू० ३/३/४०) या 'चेस्तु हस्तार्थेन' इस सूत्र से प्रत्यय होकर 'अवचाय' शब्द बनता है । हाथ से यदि पाना असम्भव हो तो उस चुनने की क्रिया को 'अवचय' कहते हैं इस तरह यहाँ हाथ से प्राप्य अर्थ होने के कारण अवचाय ही होगा "ऐरच्' से अच् प्रत्यय करके "अवचयः ' नहीं । जान-बूझ कर यहाँ 'अवचाय' शब्द का प्रयोग करके हस्तवाप्य अर्थ की विवक्षा की गयी है। इस विवक्षा से यह निकला कि और जगह फूल इस तरह खिले हुए हैं कि उन्हें हाथ से पाया जा सकता है और आसानी से तोड़ा जा सकता है । इस तरह सखियों को वहाँ जाने का प्रलोभन दिया गया है । यहाँ तो 'अवचय' किया जा सकता बड़ी कठिनाई से वृक्ष आदि पर चढ़कर फूल तोड़े जा सकते हैं। इस तरह यह सूचित किया गया है कि हाथ से पाने फूलों का यहाँ अभाव होने से और भी कोई व्यक्ति यहाँ नहीं आयेगा । इस लिए यह स्थान निर्जन है यह व्यङ्गय विश्वासपात्रा के प्रति अभिव्यक्त होता है । इसीलिये वृत्ति में “विविक्तोऽयं देश : " -- यह स्थान एकान्त है" यह ग्रन्थकार लिखेगे ।
'अस्मि' यह 'अहम्' अर्थ में प्रयुक्त होनेवाला अव्यय है। इसका अर्थ 'मैं' है। हाय से नहीं पाने के लायक फूलों को तुम भी कैसे तोड़ पाओगी ? सखियों की इस आशंका को मन में रखकर स्वयं कहती है कि मैं दूर जाने में असमर्थ हूं। इसलिए मुझे छाया में रह कर हाथ से अग्राह्य फूल भी तोड़ने ही पड़ेंगे !
विश्वासपात्र सखी के प्रति जिसे वह व्यङ्ग्य के द्वारा किसी प्रच्छन्न कामुक (ढिपे रुस्तम) को भेजने के