Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 301
________________ तृतीय उल्लासः १४६ [सू० ३७] वक्तृबोद्धव्यकाकूनां वाक्यवाच्यान्यसंन्निधेः ॥२१॥ प्रस्तावदेशकालादेशिष्ट्यात्प्रतिभाजुषाम् । योऽर्थस्यान्यार्थधीहेतुापारो व्यक्तिरेव सा ॥२२॥ कीदृश्यर्थव्यञ्जकतेत्यत आहेति तदर्थः वत्रिति (?) तथा चानुमाने हेतुमात्रमपेक्षणीयमिति वक्त्रादिवैलक्षण्यं विनाऽपि तदर्थबोधापत्तिः अतो वक्तृवैलक्षण्यादिसहकृतव्यञ्जनैव तादृशबोधजनिकेति भाव इति व्याचक्ष्महे । वाक्यवाच्याभ्यां सहितोऽन्यसन्निधिः वाक्यवाच्यान्यसन्निधिः अतो न द्वन्द्वैकवद्भावे नपुंसकत्वमित्यवधेयम् । ननु यद्यर्थस्य व्यञ्जकत्वं तदा कथं न सर्वेषां तादृशार्थप्रतिपत्तिलिङ्गविधया गमकत्वे तु नैष दोषः, व्याप्तिपक्षधर्मताज्ञानवतामेव तत्प्रतीत्यभ्युपगमादित्यत आह-प्रतिभाजुषामिति । प्रतिभा वासना नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञेति यावत्, तथा च वक्त वैशिष्टयादज्ञानोत्थापितप्रतिभायामेव सत्यां व्यङ्ग्यव्यञ्जना मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, यह भी 'कोदशी' इस अवतरण का तात्पर्य हो सकता है। इसका उत्तर देते हुए लिखा गया है "वक्विति" । अर्थात् अनुमान में तो हेतुमान की अपेक्षा रहती है किन्तु व्यञ्जना में वक्त्रादि-वैलक्षण्य की भी आवश्यकता होती है। अनुमान मानने पर वक्त आदि के वलक्षण्य के न रहने पर व्यङ्गयधोध होने लगेगा। तात्पर्य यह है कि 'समान अर्थ रहने पर भी यदि विलक्षण वक्ता या बोद्धव्य आदि नहीं रहता है तो व्यङ्गय नहीं होता है । अनुमान मानने पर तो हेतु रहने से सब जगह व्यङ्गय की प्रतीति होनी चाहिए । इसलिये वक्त-वलक्षण्यादि-सहकृत व्यञ्जना ही उस प्रकार के बोध की जननी है ऐसा मानना चाहिए।' वाक्यवाच्यान्यसन्निधेः" में "वाक्यञ्च वाच्यञ्च" इस विग्रह में पहले द्वन्द्व करके फिर "वाक्यवाच्याभ्यां सहितोऽन्यसन्निधिः” इस विग्रह में शाकपार्थिवः की तरह मध्यमपदलोपी समास माना गया है। इसलिए समाहारद्वन्दु करने से एक वचन की उपपत्ति होने पर भी नपुंसकत्व की प्राप्ति से रूपासिद्धि नहीं हुई। वाक्य, वाच्य और अन्यसन्निधि में यहां त्रिपदद्वन्द्व नहीं माना गया है। यदि अर्थ व्यञ्जक होता है तो अर्थ समझने वाले सभी व्यक्तियों को उस प्रकार के अर्थ की (व्यङ्गय अर्थ की) प्रतिपत्ति क्यों नहीं होती ? यदि लिङ्ग की विधा अर्थात् अनुमान से प्रतीति मानते हैं तो दोष नहीं होता, क्योंकि अनुमानजन्य बोध व्याप्ति, पक्षधर्मता (यत्र यत्र धुमस्तत्र तत्र वहि नरिति साहचर्यनियमो व्याप्ति: व्याप्यस्य पर्वतादिवृत्तित्वं पक्षधर्मता) ज्ञान रखने वालों को ही होता है । इस प्रश्न के उत्तर के लिए कहते हैं :-"प्रतिभाजुषाम्" अर्थात् वासनावाले सहृदयों को ही व्य इम्यबोध होता है। अर्थ समझनेवाले यदि सहृदय नहीं है, तो उन्हें व्यङ्ग्यबोध नहीं होगा। 'प्रतिभाजूषाम' का अर्थ है प्रतिभासम्पन्नानाम । प्रतिभा का अर्थ है वासना, नवीन नवीन उद्भावना से शोभायमान प्रज्ञा (बुद्धि)। इस तरह वक्तबोद्धव्य आदि ज्ञान से उत्थापित प्रतिभा रहने पर ही व्यङ्ग्य की प्रतीति होगी। इसीलिए व्याप्तिज्ञान में विलम्ब होने पर जैसे अनुमान में विलम्बता आती है इस तरह व्यङ्ग्य बोध बक्त आदि शान से उत्यापित प्रतिभा से प्रतिभा में ही हो जाता है। अतः अनुमान से व्यजना की अन्यथासिद्धि नहीं दिखायी जा सकती । कारिका में व्यक्ति' का अर्थ "व्यञ्जना" है । बोद्धव्य का अर्थ 'बोधितु योग्यः" इस व्युत्पत्ति से 'वाच्य' ही होता है ऐसी स्थिति में 'वाच्य' के साथ पुनरुक्त दोष न हो जाए इसलिए "बोधयितु योग्यः बोद्धव्यः" इस व्युत्पत्ति के द्वारा ण्यन्त बुध धातु से 'बोद्धव्य' शब्द की सिद्धि मानकर अन्तर्भावित ण्यर्थ के रूप में इस शब्द की व्याख्या करते हैं- "प्रतिपाद्यः" अर्थात् श्रोता वह व्यक्तिविशेष जिसे कहा जाता हो । पूर्व निर्दिष्ट (अन्तर्भावित

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