Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 300
________________ १४८ काव्य-प्रकाशः अर्था वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयाः। तेषां वाचक-लाक्षणिक- व्यजकानाम् । [सू० ३६] - अर्थव्यञ्जकतोच्यते । कीदृशीत्याहकेवल वाच्यलक्ष्ययोरेव व्यञ्जकतोच्यते, अपि तु व्यङ्गयस्यापीति भावः, अत एव व्यङ्गयमन्तर्भाव्य व्याचष्टे- अर्था इत्यादिनेति व्याचक्ष्महे । तेषामित्यस्यार्थपरत्वे व्यञ्जकतेत्याद्यग्रिमग्रन्थानन्वय इत्यतो व्याचष्टे- वाचकेति । सर्वेषामर्थानामव्यञ्जकत्वमालोक्य पृच्छति-कीदृशीति । वक्त्रिति तथा च सहकारिविशेषविशिष्टानां व्यजकत्वादसार्वत्रिकत्वं न दोषायेति भाव इति प्राञ्चः। वयं त-व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वऽनवस्थापत्तिः अतः कीदृशी सर्वेषामर्थानां व्यञ्जकतेत्यत आहेत्यवतारिकार्थः, वक्त्रिति, तथा च यत्र व वक्त्रादिवलक्षण्यरूपसहकारिसमवधानं तत्र व व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वं नान्यत्रेति नानवस्थेति भावः, अथवा शब्देऽस्तु व्यञ्जना अर्थस्य तु लिङ्गविधयव गमकत्वसम्भवादनुमानेनान्यथा सिद्धेः रही है। इसीलिए व्यङ्गय को भी अर्थों में (वाच्य और लक्ष्य के साथ) अन्तःप्रविष्ट करते हुए लिखते हैं-'अर्धा' इति । अर्थाः प्रोक्ताः पुरा तेषाम्" में तेषाम् पद से यदि अर्थों का परामर्श किया जाय तो कारिका में आगे निर्दिष्ट "अर्थ-व्यजकता" पद का उनके साथ अन्वय नहीं हो सकेगा, इसीलिए वृत्ति में "तेषाम्" की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-'वाचकलाक्षणिकव्यञ्जकानाम्" इससे उचित अन्वय होकर अर्थ निकला कि 'अर्थों का वर्णन पहले किया जा चुका है उनके अर्थात् वाचक, लाक्षणिक और व्यञ्जक शब्दों के वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय तीन प्रकार के जथं बताये जा चु। हैं; उनकी अर्थव्यञ्जकता अर्थात् उन पर आश्रित 'आर्थी व्यञ्जकता' का अब निरूपण करते हैंप्रार्थो व्यञ्जना के भेद सभी प्रकार के अर्थ, व्यञक नहीं हो सकते हैं यह मानकर पूछते हैं कि-'कीदृशी" अर्थात् अर्थव्यजकता किस प्रकार की होती है-वक्तबोद्धव्यकाकूनाम् । (सूत्र ६७) १. वक्ता, २. बोद्धव्य, ३. काकु, ४. वाक्य, ५. वाच्य, ६. अन्यसन्निधि ७-प्रस्ताव, देश, (काल (आदि शब्द ग्राह्य) चेष्टादि के वैशिष्ट्य, से प्रतिभावान् सहृदयों को अन्या की प्रतीति कराने वाला अर्थ का जो व्यापार होता है, वह आर्थी व्यञ्जना हा कहलाता है। वक्त आदि सहकारी-विशेष से विशिष्ट अर्थों में ही व्यञ्जकता स्वीकार की गयी है इसलिए सभी प्रकार के अर्थ यदि व्य क नहीं होते हैं तो यह कोई दोष नहीं है। यह प्राचीन आचार्यों का मत है। हम तो इस प्रकार व्याख्या करते हैं- व्यङ्गय भी यदि व्यञक होगा तो अनवस्थादोष होगा। इसलिए सभी प्रकार के अर्थों की व्यजकता किस प्रकार की होनी चाहिए। इसके लिए कहा गया है "वक्त" इत्यादि यह अवतरण ग्रन्थ का अर्थ है। इस तरह सिद है कि जहाँ बस्तु आदि की विलक्षणतारूप सहकारिता की सत्ता रहेगी वहीं व्यङ्गय भी व्यम्जक होगा, और जगह नहीं। इसलिए व्यङ्ग को ध्यञ्जक मानने में किसी प्रकार की अनवस्था महीं होगी। हमें यह यहाँ के ग्रन्थ का तात्पर्य प्रतीत होता है। अथवा शब्द में व्यजना मानते हैं तो मानिये, अर्थ में व्यञ्जना मानने की तो कोई आवश्यकता है महीं, क्योंकि अर्थ तो लिङ्ग के द्वारा ही व्यजक होगा, लिंग (हेतु) रहने पर सो अनुमान से ही सिद्ध हो जायगा,

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