Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 299
________________ तृतीय उल्लासः [अर्थव्यञ्जकता-निरूपणात्मकः] [सू० ३५] अर्थाः प्रोक्ताः पुरा तेषाम् - नन्वर्थे निरूपिते तद्धर्मो व्यञ्जना सुनिरूपा भवति, तत् कुतस्तमनादृत्य व्यञ्जनानिरूपणमित्यत आह-अर्था इति, तथा च वाच्यादयस्तदर्थाः स्युरिति ग्रन्थेनैवार्था निरूपिता इति न तदनादर इति प्रदीपकृतः । वयं तु- ननु शब्दव्यञ्जनायामभिधालक्षणा-मूलत्वप्रदर्शनादभिधेयलक्ष्ययोरेवार्थयोरपि व्यञ्जकतोक्तिरर्थव्यञ्जकतोच्यत इत्यनेन मा प्रसाङ्क्षीदिति प्रथममर्थमेवाह-अर्था इति । तथा च न उल्लास संगति , द्वितीय उल्लास में शब्द तथा अर्थ के स्वरूप का निर्णय करते हुए मम्मट ने शब्द के तीन भेद बताये हैं- 'वाचक, लक्षक और व्यञ्जक । अर्थ के तीन भेदों का भी निरूपण किया जा चुका है वे भेद हैं- वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्गय । साथ-साथ लाक्षणिक शब्दों के प्रसङ्ग में 'प्रयोजनवती लक्षणा' में प्रयोजन के बोध के लिए व्यञ्जनावृत्ति की आवश्यकता का भी वर्णन किया जा चुका है। वह व्यञ्जना-वृत्ति दो प्रकार की होती है। १-शाब्दी व्यञ्जना और २-आर्थी व्यञ्जना । उनमें शाब्दी व्यञ्जना दो प्रकार की होती है---१-अभिधामूला और २-लक्षणामूला । द्वितीय उल्लास में शाब्दी व्यञ्जना के इन दोनों भेदो का निरूपण किया जा चुका है। इस ततीय उल्लास में प्रार्थी व्यञ्जना के समस्त भेदों का सोदाहरण निरूपण करना है। इसीसे इस उल्लास का नाम "अर्थव्यञ्जकता-निरूपण" रखा गया है। इस उल्लास के प्रारम्भ में पूर्वकथित अर्थों का स्मरण दिलाते हुए ग्रन्थकार आर्थी व्यञ्जना का निरूपण प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं- "अर्थाः प्रोक्ताः पुरा तेषाम्"। इसी आशय को टीकाकार यहाँ विविध प्रश्नोत्तरों के द्वारा प्रकट करते हैं अर्थ के भेद-अर्थ के निरूपण किये जाने पर ही उसके धर्म, व्यञ्जना का निरूपण अच्छी तरह किया जा सकता है। इसलिए अर्थ धर्म का निरूपण छोड़कर व्यञ्जना का निरूपण क्यों किया जा रहा है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए कहते हैं-"अर्थाः प्रोक्ताः" अर्थात "वाच्यावयस्तदर्थाः स्युः" इस ग्रन्थ के द्वारा ही अर्थों का प्रतिपादन किया जा चुका है। इसलिए यहाँ अर्थ-निरूपण की ओर से आँख बन्द नहीं करली गयी है। ऐसा मत प्रदीपकार का है। हम तो इस ग्रन्थ की व्याख्या इस प्रकार करते हैं- ग्रन्थकार ने सोचा होगा कि शाळा व्यञ्जना के अभिधामूला और लक्षणामूला के रूप में दो भेद बताये गये हैं इसलिए "अर्थाः प्रोक्ताः" यह न कह कर यदि केवल यही कहें-"अर्थव्यजकतोच्यते" तो किसी को यह भी भ्रम हो सकता है कि "अर्थव्यञ्जकतोच्यते" यहाँ अर्थ पद से अभिधेय भौर लक्षण अर्थ ही लिये गये हैं और इस उल्लास में अभिधेय और लक्ष्य अर्थों की ही व्यञ्जकता बतायी जा रही है, इस भ्रम के निवारण के लिये पहले ही लिख देते हैं- 'अर्थाः इति' इससे यह प्रकट हुआ कि यहां न केवल वाच्य और लक्ष्य की ही व्यन्जकता कही जा रही है किन्तु व्यङ्गय की व्यञ्जकता भी बतायी जा

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