Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 302
________________ १५० तृतीय उल्लासः बोद्धव्यः प्रतिपाद्यः । काकुलनेर्विकारः । प्रस्ताव: प्रकरणम् । अर्थस्य वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयात्मनः । क्रमेणोदाहरणानि । अइपिहुलं जलकुभं घेत्त रण समागदह्मि सहि तुरिन। समसेअसलिलणीसासणीसहा वीसमामि खणं ॥१३॥ (अतिपृथुलं जलकुम्भं गृहीत्वा समागतास्मि सखि ! त्वरितम् । श्रमस्वेदसलिलनिःश्वासनिःसहा विश्राम्यामि क्षणम् ॥१३॥) प्रतीतिः न तु व्याप्त्यादिज्ञानविलम्बेन विलम्ब इति नानुमानेनान्यथा सिद्धिर्व्यञ्जनाया इति भावः । व्यक्तियंजना, बोद्धव्यपदस्य वाच्यार्थत्वे पौनरुक्त्यापत्तेरन्तर्भावितण्यर्थतया व्याचष्टे-प्रतिपाद्य इति पुरुषविशेषः, एवमनवस्थोद्धारे व्यङ्गयस्यापि व्यञ्जकत्वसम्भवात् मर्वेषामेवार्थानां व्यञ्जकत्वें. योऽर्थ- . स्येत्यर्थपदं वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयरूपसकलार्थपरतया व्याचष्टेऽर्थस्य वाच्यलक्ष्यव्यङ्गयात्मन इति, यद्वा व्यङ्गयात्मन इत्यत्र व्यङ्गयपदेन शब्दव्यङ्गयार्थव्यङ्गययोरुपादानम्, तथा चार्थस्य लिङ्गविधया गमकत्वे (ऽनुमिता) [व्यङ्ग्या] नुमानाश्रयणेन व्याप्तिपक्षधर्मताज्ञानविलम्बेन विलम्बिनी तत्प्रतीतिः स्यादिति नानुमानेन व्यञ्जनान्यथासिद्धिरिति भावमाकलयामः । ___क्रमेणेति । प्रतिज्ञामात्रेणार्थासिद्धिरित्यनुभवं प्रमाणयितुमुदाहरणानि क्रमेण दीयन्त इत्यर्थः । अइ-इति अतिपृथुलं जलकुम्भं गृहीत्वा समागताऽस्मि सखि ! त्वरितम् । श्रमस्वेदसलिलनिःश्वास-निस्सहा विश्राम्यामि क्षणम् ।।१३।। , ण्यर्थात्मक व्याख्यादि) उपाय द्वारा इस तरह अनवस्था दोष का निराकरण करने पर व्यङ्ग्य को भी व्यञ्जकत्व की सम्भावना जब मान ली गयी तब सभी अर्थों की व्यञ्जकता स्वयं सिद्ध हो जाती है। ऐसी स्थिति में “योऽर्थस्य" यहाँ के 'अर्थ'पद वाच्य, लक्ष्य और व्यङ्ग्यरूप सभी अर्थों का बोधक है ऐसी व्याख्या करते हुए लिखते हैं "अर्थस्य वाच्यलक्ष्यव्यङ्ग्यात्मनः"। अथवा "व्यङ्गयात्मनः" यहाँ व्यङ्गयपद से शब्दव्यङ्गय और अर्थव्यङ्गय दोनों प्रकार के व्यङ्गयों का उपादान माना गया है। इस तरह ग्रन्थकार यह बताना चाहते हैं कि अर्थ यदि लिङ्गविधा से (लिङ्गरूप में) गमक अर्यात् अनुमापक बनेगा, तो अनुमेयत्वेन अभिमत अर्थात् अनुमेय माना गया वह व्यङ्गय अनुमान के आश्रय के कारण (अनुमान में अपेक्षित) व्याप्ति और पक्ष धर्मताज्ञान के विलम्ब से विलम्बसे प्रतीत होने लगेगा इसलिए अनुमान से व्यन्जना की अन्ययासिद्धि नहीं मानी जा सकती, यह भाव यहाँ प्रतीत होता है। "क्रमेण दाहरणानि" केवल प्रतिज्ञा मात्र से अर्थात् कोई वस्तु कथनमात्र से प्रमाणित नहीं हो जाती है यह हम सब जानते हैं अत: इसे प्रमाणित करने के लिए क्रमिक उदाहरण देते हैं। आर्थीव्यञ्जना के उक्त दसों प्रकारों के क्रमशः उदाहरण इस प्रकार हैं : १. वक्ता के वैशिष्टय में व्यञ्जना का उदाहरण-'अइ पिहल' इत्यादि कोई अपनी सखी से कहती है कि हे

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