Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 296
________________ १४४ काव्यप्रकाशः [सू० ३४ ] यत्सोऽर्थान्तरयुक् तथा । श्रर्थोऽपि व्यञ्जकस्तत्र सहकारितया मतः ॥२०॥ यस्मादित्यर्थः, स शब्द एव अर्थान्तरं व्यङ्गयभिन्नं वाच्यम् तद्युक्तः तथा, - व्यञ्जकः सहकारितया न तु प्राधान्येन, तथा चाननुगुणप्रधानस्यैव व्यवधायकत्वं न त्वनुगुणाप्रधानस्येति भाव इति परमानन्दप्रभृतयः । वयं त्वन्वयबोधे संस्कारोपनीतं पदमपि भासत इत्यालङ्कारिकैकदेशिमतं, तदुक्तं - 'न सोऽस्ति प्रत्यय इत्यादि, तथा चार्थरूपपदं पदान्तरं व्यवधायकं तद्युक्तः तज्ज्ञानविषयः स शब्द एव तथा व्यञ्जक इत्यर्थः । तथा च प्राथमिकान्वयबोधे संस्कारोपनीतं पदमपि भासते तदेव व्यञ्जकं न तु प्राथमिकमिति न विरामदोष इति भावः । ननु व्यङ्ग्यबोधे व्यवहितबोधविषयत्वाविशेषात् कथं शब्द एव व्यञ्जको नार्थ इत्यत आह- श्रर्थोऽपीति, नन्वेवमर्थकरणकतया कथं व्यङ्गयबोधस्य शाब्दत्वमत आह-सहकारित लिखते हैं: - 'यत् सोऽर्थान्तरयुक् तथा । अर्थोऽपि व्यञ्जकस्तत्र सहकारितया मतः " वह व्यञ्जक शब्द दूसरे अर्थ के योग से अर्थात् अपने मुख्य अर्थ का बोध कराने के बाद (तथा) उस प्रकार का होता है अर्थात् दूसरे अर्थ का व्यञ्जक होता है, इसलिए व्यवधानवाला दोष नहीं होता, इस अर्थ को टीकाकार इस तरह स्पष्ट करते हैं । कारिका में 'यत् का अर्थं यस्मात् 'क्योंकि' है, 'स' का अर्थ यहाँ शब्द है । इस तरह अर्थ हुआ कि वह शब्द ही अर्थान्तर अर्थात् व्यङ्गयभिन्न वाक्य से युक्त होकर तथा व्यञ्जक होता है। इस तरह यहाँ वाच्यार्थं सहकारी है । वाच्यार्थ यहाँ सहकारी होकर व्यञ्जक है प्रधान रूप में नहीं । उसी व्यवधायक के व्यवधान को बाघक माना जाता है जो प्रतिकूल और प्रधान हो । जो व्यवधायक अनुगुण (अनुकूल) और अप्रधान (सहकारी) है उसके व्यवधान को करणत्व का बाधक नहीं माना जाता है । यह व्याख्या परमानन्द आदि विद्वानों की है। हमारी राय तो यह है कि कुछ आलंकारिक यह मानते हैं कि अन्वयबोध में संस्कार के कारण उपस्थित पद भी भासित होता है। यह बात वाक्यपदीय को कारिका "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमारते ।” अनुविद्धमिदं ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥” - बतायी गयी है अर्थात् लोक में कोई भी प्रत्यय (बोध) ऐसा नहीं है जो अनुगत शब्द न हो । अर्थात् संसार के समस्त बोध में शब्द अनुप्रविष्ट रहता है। सब ज्ञान शब्दानुविद्ध होकर ही प्रतीतिपथ में भासित होता है । इस तरह प्राथमिक बोध में संस्कार-प्रवाहित पद ही व्यञ्जक होता है; प्राथमिक अर्थ नहीं। इसलिए विरामदोष का भी अवकाश नहीं है । प्रथमार्थ के बाद विराम हो, तब न, " शब्दबुद्धि कर्मणां विरम्य व्यापाराभावः " के लिए अवसर हो, यहाँ तो प्रथमार्थ प्रतीति में भासित पद से द्वितीयार्थ की प्रतीति हो जाती है, इसलिए न विराम है और न व्यापारान्तर या अर्थान्तर का व्यवधान । अतः शब्द को करण बनने में कोई बाधा नहीं हुई । पूर्व समाधान में भी व्यजयबोध एक व्यवहितबोध तो रहा ही। ऐसी स्थिति में शब्द ही क्यों व्यञ्जक हो अर्थ को व्यञ्जक क्यों न मानें ? इसके समाधान में लिखते हैं: अर्थोऽपि ...... सहकारी रूप में अर्थ को भी व्यञ्जक मानते ही हैं। अर्थकरण (अर्थसाधित) होते हुए भी व्यङ्गयबोध शब्द कैसे माना जाता है; इसका समाधान है। “सहकारितया”--अर्थात् अर्थ सहकारीरूप में व्यञ्जक है। केवल अर्थकरणक ज्ञान ही अशाब्द होता है यह ज्ञान (व्यङ्गयबोध) तो अर्थ सहकृत शब्दकरणक है। इसलिए इस ज्ञान में शाब्दत्व की कमी नहीं आयी ।

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