Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 294
________________ १४२ काव्य-प्रकाशः कल्पनागौरवं फलमुखत्वात् । किञ्च प्राकरणिकबोधतत्प्रागभावकालीनाप्राकरणिकबोधस्याप्रसिद्धया कथं तादृशबोधत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वमिति । ____ यत्तु प्रकरणादेस्तात्पर्यस्य वा नाप्राकृतार्थबोधप्रतिबन्धकत्वं सैन्धवमानयेत्यादावुभयार्थबोधनियम एव इष्टसाधनताज्ञानाभावाच्च न श्रोतुरुभयानयने प्रवृत्तिरिति ताकिकम्मन्यमतम् । तत्तु लवणपरतया वक्तृप्रयुक्तत्वज्ञानेऽपि श्रोतुस्तुरगानयने स्वेष्टसाधनताज्ञानात् तदानयनापत्त्या, इह तुरगोड स्ति नवेति सन्देहवतो गृहे सैन्धवमिति वाक्याल्लवणपरतया ज्ञातात् सन्देहनिवृत्त्या चोपेक्षणीयम् । ननु यदि व्यञ्जनयवाप्राकरणिकबोधस्तदा कथमभिधेयरूपाप्राकरणिकस्य बोधो नानभिधेयस्याप्राकरणिकस्येति चेत्, न, क्वचिदनभिधेयस्यापि 'गतोऽस्तमर्क' इत्यादौ व्यञ्जनया भानात्, प्रकृते यहां अन्य वृत्ति की कल्पना में गौरव होगा। ऐसा दोष नहीं देना चाहिए। क्योंकि फल मुख गौरव को । दोषाधायक नहीं माना गया है । अर्थात् वह गौरव जिसका कोई प्रयोजन हो; दोषावह नहीं माना जाता है। दूसरी बात यह कि प्रतिबध्यतावच्छेदक उसी बोध को कहते हैं जो प्रसिद्ध हो किन्तु प्राकरणिक बोध । '' और तत्प्रागभावकालीन अप्राकरणिक बोध कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है फिर उस बोध को प्रतिबध्यतावच्छेदक कैसे माना जाय ? किसी ताकिकम्मन्य (अपने को तार्किक माननेवाले) ने जो यह माना कि प्रकरणादि या तात्पर्य को, अप्राकरणिक अर्थ के बोधक प्रतिबन्धक नहीं मानना चाहिए। "सैन्धवमानय" यहाँ दोनों अर्थ का बोध होता ही है। उस वाक्य के श्रोता की लवण और अश्व दोनों के आनयन में प्रवृत्ति जो नहीं होती, इसका कारण इष्ट-साधनताज्ञान का अभाव ही है। "भोजनकाले अश्वानयनं न किमपि इष्टं साधयेत्" इस ज्ञान के कारण ही उसकी अश्वानयन में प्रवृत्ति नहीं होती। इसके विपरीत भोजन के समय "लवणानयनम् इष्टसाधकम्" इस ज्ञान से नमक लाने में प्रवृत्ति होती है। यह मत ठीक नहीं है; क्योंकि जहाँ नमक लाने के उद्देश्य से वक्ता के द्वारा प्रयुक्त 'सैन्धवमानय' इस वाक्य का तात्पर्य जानकर भी श्रोता को यदि यह ज्ञान है कि तुरंग लाने से उसकी अभीष्ट सिद्धि हो रही है तो वहाँ इष्टसाधनता का ज्ञान रहने से तुरंग लाने में प्रवृत्ति होनी चाहिए; परन्तु ऐसा नहीं होता अतः यह कैसे माना जाय कि इष्टसाधनताज्ञान के अभाव में अश्वानयन में प्रवृत्ति नहीं होती, क्योंकि वहाँ इष्टसाधनताज्ञान होते हुए भी तादृश प्रवृत्ति नहीं हुई है। "यहाँ तुरंग है या नहीं" इस सन्देह से युक्त पुरुष को 'गृहे सैन्धवम्' इस प्राप्तवाक्य से लवण का ही बोध होता है और उसके सन्देह की निवृत्ति हो जाती है। अतः इष्टसाधनताज्ञानाभाव को उभयानयनाभाव का कारण नहीं माना जा सकता। यहाँ एक प्रश्न है कि यदि व्यञ्जना से ही अप्राकरणिक बोध होता है तो अभिधेयरूप अप्राकरणिक का ही बोध क्यों होता है । "भद्रात्मनः" इस श्लोक में व्यञ्जना से जिस अप्राकरणिक गजान्वयी अर्थ का बोध होता है; वह अभिधेय ही है। अनभिधेय अप्राकरणिक अर्थ का बोध व्यञ्जना क्यों नहीं कराती? कहीं जैसे "गतोऽस्तमर्कः' यहाँ (मुनि, सन्ध्याकाल में भ्रमणव्यसनी आदि प्रति सायंकालीन सन्ध्यावन्दन करना चाहिए, अब घमने जाना चाहिए आदि) अभिधेय अर्थ की व्यञ्जना प्रतीति कराती है वैसे “भद्रात्मनः" इत्यादि स्थलों में भी व्यञ्जना से अनभिधेय अर्थ की प्रतीति होनी चाहिए ऐसा क्यों नहीं होता?

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