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द्वितीय उल्लासः
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वाच्यम्, अजनिततात्पर्यविषयार्थान्वयबोधत्वरूपाया'स्तस्याः सत्त्वात्, न चापरार्थे तात्पर्यग्राहकाभावः, श्लिष्टविशेषणोपादानज्ञानस्यैव तद्ग्राहकत्वात्, आवृत्त्या वा द्वितीयार्थबोधोऽस्तु, धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पनाया लघुत्वात्, न चैवं प्रकारणाद्यनुपयोगः नानार्थेषूभयानुभवप्रसक्तौ क्रमनियामकतामात्रेणोपयोगादिति चेत्, अत्र ब्रूमः क्रमनियामक इत्यस्य कोऽर्थः ? किमत्राप्राकारणिकार्थबोधप्रागभावकालीनप्राकरणिकबोधत्वं तत्कार्यतावच्छेदकं ? किं वा प्राकरणिकबोधतत्प्रागभावकालीनाप्राकरणिकबोधत्वं तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकम ? नाद्यः. व्यासङ्गादिना प्राकरणिकार्थबोधाभावेऽप्राकरणिकबोधानापत्त्या प्रागभावकालीनत्वस्यार्थवशसम्पन्नतया च कार्यतानवच्छेदकत्वात् । नान्त्यः, अप्राकरणिकबोधत्वस्यैव लघुनस्तत्त्वसम्भवे तत्कालीनत्वविशिष्टतत्त्वस्य गुरुत्वेन प्रतिबध्यतानवच्छेदकत्वात्, न चैवं वृत्त्यन्तरतब तक नहीं माना जाएगा जब तक कि पूर्णरूप से तात्पर्य का ज्ञान नहीं हो जाएगा, सम्पूर्ण तात्पर्य के ज्ञान के पहले प्रतीतिपर्यवसान कहाँ ? इस तरह द्वितीय अर्थ के बोध तक अकांक्षा का अभाव नहीं माना जा सकता तात्पर्यविषयीभूत अर्थ के अनुत्पन्न अन्वयबोध की उत्पत्ति तक आकांक्षा की सत्ता है ही।
द्वितीय अर्थ में तात्पर्यग्राहकता का अभाव भी नहीं मान सकते क्योंकि श्लिष्ट विशेषण लगाना ही यह संकेत करता है कि 'वक्ता का तात्पर्य द्वितीय अर्थ में भी है। यदि ऐसा न होता तो कवि अनेकार्थक शब्दों के प्रयोग का प्रयास क्यों करता?
- आवृत्ति के द्वारा द्वितीयार्थबोध मानना गौरवग्रस्त होगा, क्योंकि धर्मी की कल्पना की अपेक्षा धर्म की कल्पना में लाघव माना गया है। व्यापारद्वय या अभिधाद्वय की कल्पना धर्म की कल्पना है, समस्त शब्दों की आवृत्ति की कल्पना धर्मी की कल्पना है।
ऐसा मानने पर प्रकरणादि के अनुपयोग अर्थात् व्यर्थ होने की शङ्का नहीं करना चाहिए, क्योंकि नानार्थक शब्दों में दोनों अर्थों के अनुभव की प्रसक्ति होने पर क्रम का नियमन करना ही प्रकरणादि का उपयोग हो सकता है। प्रकरणादि के अनुकूल अर्थ का प्रथम बोध और अप्राकरणिक अर्थ का पश्चात बोध कराना ही उनका उपयोग हो सकता है।
___ यहाँ हमें कुछ पूछना है; हम पूछना चाहते हैं, कि क्रमनियामक से आपका क्या तात्पर्य है ? क्या अप्राकरणिक अर्थबोध के प्रागभाव काल में प्राकरणिक अर्थ का बोध कराना ही क्रमनियामकता का अर्थ है अर्थात् प्रकरणादि अर्थ पहले और अप्राकरणिक अर्थ बाद में ज्ञात होता है यही क्रमनियामकता है ? या प्राकरणिक अर्थबोध के पहले (सम्भावित) अप्राकरणिक अर्थबोध का प्रतिबन्धक बनना ही क्रमनियामकता है ? इनमें प्रथम पक्ष नहीं माना जा सकता क्योंकि
ध्यान के व्यासङ्ग (अन्यत्र लगे रहने के कारण जहां प्राकरणिक बोध नहीं होगा वहाँ अप्राकरणिक बोध न होने पर प्रागभावकालीनत्व के अर्थवश प्राजाने से उसे कार्यतावच्छेदक नहीं माना जा सकता। जहां व्यासङ्ग के कारण प्राकरणिक अर्थबोध का अभाव है और साथ २ अप्राकरणिक अर्थबोध भी नहीं है वहाँ अप्राकरणिकार्थ-बोध प्रागभावकालीन प्राकरणिकबोध नहीं होने के कारण व्यभिचार आने से उसे तत्कार्यतावच्छेदक नहीं माना जा सकता।
- लघु होने के कारण अप्राकरणिकबोधत्व को ही प्रतिबध्यतावच्छेदक माना जा सकता है तत्कालीन विशिष्ट-अप्राकरणिकबोधत्व को जो कि गुरु है प्रतिबध्यतावच्छेदक नहीं मानना चाहिए। अतः अन्त्य पक्ष भी ठीक नहीं है। १. टि. आकाङ्क्षायाः।