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द्वितीय उल्लासः
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कर
भद्रात्मनो दुरधिरोहतनोविशालवंशोन्नते: कृतशिलीमुखसङ्ग्रहस्य ।
यस्यानुपप्लुतगतेः' परवारणस्य दानाम्बुसेकसुभगः सततं करोऽभूत् ॥१२॥ शत्र निवारकत्वं, दानाम्बु उत्सर्गजलं, करः पाणिः, हस्तिपक्षे-भद्रो जातिभेदः, दुरधिरोहत्वमत्युच्चत्वं, वंशः पृष्ठदण्डः, विशालवंशवदुन्नतस्येत्यर्थः, शिलीमुखा भ्रमराः, अनुपप्लुतगतेः गमन-[अविप्लुतअनुपप्लुत]स्य परवारणस्य श्रेष्ठहस्तिनः, दानाम्बु मदजलं, करः शुण्डादण्डः । अत्र प्रकरणेन राज्ञि तदन्वययोग्येऽभिधानियन्त्रणेऽपि गजस्य तदन्वययोग्यस्य व्यञ्जनयव प्रतीतिरिति भावः । न च योऽसकृलडार माना जाता है, उसका उदाहरण "भद्रात्मनो दुरधिरोहतनोः" यह श्लोक है। उस श्लोक के क्लिष्ट पदों के अर्थ इस प्रकार हैं। राज पक्ष में : अर्थ
शब्द
अर्थ भद्रात्मत्वम् पवित्र हृदयत्व
शिलीमुखाः
बाण दुरधिरोहत्वम् अपराजेयत्व, अदम्यत्व गतिः
ज्ञान वंशः कुल, खानदान
परवारणत्वम् शत्रुनिवारकत्व उन्नतिः । ख्याति
दानाम्बु
उत्सर्ग का पानी
हाथ हाथी के पक्ष में, शब्दार्थ :अर्थ
शब्द भद्र:
हाथी की एक जातिविशेष शिलीमुखाः भौरे का नाम
अनुपप्लुतगतिः उछल-उछल कर नहीं दुरधिरोहत्वम् बहुत अधिक ऊँचाई
चलनेवाला, मस्त गतिवाला वंशः रीढ़ की हड्डी, (पृष्ठदण्ड) परवारणस्य
श्रेष्ठ हाथी (का) विशालवंशोन्नतिः विशाल बाँस के समान दानाम्बु
मदजल ऊँचाईवाला . यहां प्रकरण के द्वारा अभिधा का पूर्वनिर्दिष्ट अर्थ के साथ अन्वय की योग्यता रखनेवाले राजपक्षीय अर्थ में नियन्त्रण हो जाने पर भी पूर्वनिर्दिष्ट अर्थ के साथ अन्वय की योग्यता रखनेवाले गज को (गजपक्षीय अर्थ का) बोध व्यञ्जना से ही होता है।
"योऽसकृत् परगोत्राणां पक्षच्छेदक्षणक्षमः ।
शतकोटिदतां बिभ्रद् विबुधेन्दुः स राजते ॥" (राज पक्ष) अनेकों बार शत्रुवंश के समर्थकों को छिन्न-भिन्न करने में शीघ्र समर्थ, संकड़ोंकरोड़ (मुद्राओं) के दान की महिमा से मण्डित यह महाबुद्धिमान् राजा शोभित हो रहा है।
(इन्द्र पक्ष) अनेकों बार बड़े-बड़े पर्वतों के विदारण में सदा समर्थ, वज्र के द्वारा शत्रुसंहार में निरत देवराज इन्द्र शोभित हो रहा है। यहाँ के अर्थश्लेष और "भद्रात्मनः" श्लोक में कोई भेद प्रतीत नहीं हो रहा है ऐसी १. अनुपप्लवगतेः इति पाठान्तरम् ।
करः