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काव्यप्रकाशः
इत्थं संयोगादिभिरर्थान्तराभिधायकत्वे निवारितेऽप्यनेकार्थस्य शब्दस्य यत् क्वचिदर्थान्तरप्रतिपादनं तत्र नाभिधा नियमनात्तस्याः । न च लक्षणा मुख्यार्थबाधाद्यभावात् । अपि त्वञ्जनं व्यञ्जनमेव व्यापारः । यथा
सर्वनाम्नोऽप्यनेक व्यक्त्युपस्थापकतयैवानेकार्थत्वमिति निबन्धारः । वस्तुतः सर्वनाम्नि बुद्धिस्थतत्तत्प्रकाराणामेव शक्यतावच्छेदकत्वपक्षे नानार्थत्वमव्याहतमेवेति मम प्रतिभाति । अत्राप्यादिपदाद् " इतः स दैत्यः प्राप्तश्रोत एवार्हति क्षत' मित्यादावभिमत-निर्देशरूपोपदेशो गृह्यते तेनेतः (नेदं) शब्दस्याभिधा वक्तरि नियम्यत इति वदन्ति । वस्तुतोऽग्रे वाच्यवक्तृबोद्धव्यादि- वैलक्षण्यमादिपदार्थः, सैन्धवं भक्षयामीत्यत्र ब्राह्मणे वक्तरि लवणस्य श्वपचे च तुरङ्गस्य, सैन्धवं भुङ्क्ष्वेत्यत्र ब्राह्मणे प्रतिपाद्ये लवणस्यैव म्लेच्छविशेषे च तुरङ्गस्यापि प्रतीतेः एवं वाक्यादीन्युदाहार्याणीति मम प्रतिभाति । कारिकार्थं सङ्गमयति-- इत्थमिति । मुख्यार्थबाधादीति, न च तात्पर्यानुपपत्त्यैव लक्षणास्त्विति वाच्यम्, तथा सति सैन्धवमानयेत्यत्रापि लक्षणापत्तेरिति भावः । भद्रात्मन इति राजपक्षे भद्रात्मत्वं शोभनान्तःकरणत्वं, दुरधिरोहत्वमनभिभवनीयत्वं, वंशः कुलम्, उन्नतिः ख्यातिः, शिलीमुखा बाणाः, गतिर्ज्ञानम्, परवारणत्वं
मुझे तो यह जँचता है कि सर्वनाम बुद्धिरूप पदार्थ का परामर्शक होता है । बुद्धिस्थ तत्तत्प्रकारों (बुद्धि में रहनेवाले उन उन वस्तुओं के धर्मों) के शक्यतावच्छेदेकत्व पक्ष में सर्वनाम की अनेकार्थता निर्बाध ही है ।
वृत्ति में भी " अभिनयादय: " में आदि पद का प्रयोग पाया जाता है। इसलिए
"इतः स दैत्यः प्राप्तश्रीनेत एवार्हति क्षयम्" इत्यादि में अभीष्ट निर्देश ( अर्थात् मुझ ब्रह्मा से उसका क्षय नहीं होगा शिव का पुत्र ही उस तारकासुर को मार सकता है । इसलिए हे देवताओं, आप शिव के विवाह का उपाय सोचो इत्यादि ब्रह्म के उपदेश ) रूप अर्थ, आदिशब्द से गृहीत हुआ। उस निर्देश " इत:" पद में इदं शब्द की afar का नियन्त्रण हुआ, ऐसा कोई कहते हैं ।
वस्तुतः आगे जिन वाच्य, वक्तृ, बोद्धव्य आदि वैलक्षण्यों की चर्चा है; वे सब आदि (वृत्तिगत अभिनयाय: में आये हुए आदि) पद से ग्राह्य हैं। साथ-साथ "संन्धवं भक्षयामि " वाक्य का वक्ता यदि ब्राह्मण होगा तो सैन्धव शब्द का अर्थ 'नमक' लिया जाएगा; यदि श्वपच पूर्वोक्त वाक्य का वक्ता होगा तो सैन्धव का अर्थ 'घोड़ा' होगा । 'अयं सैन्धवं भुङ्क्ते' 'यहाँ अयं' पद का प्रतिपाद्य या वाक्य द्वारा प्रतिपाद्य ब्राह्मण होगा तो 'लवण का बोध होगा, म्लेच्छ - विशेष को उद्देश्य करके यदि यह वाक्य कहा जाएगा तो तुरङ्ग की भी प्रतीति होगी' इस तरह के वाक्य आदि "अभिनयादय: " में आये हुए आदि पद के उदाहरण के लिए प्रस्तुत करने चाहिए ।
कारिका के अर्थ का संगमन ( लक्षण - समन्वय) दिखाते हुए लिखते हैं-" इत्थं संयोगादिभिः " । इस प्रकार संयोग आदि के द्वारा अन्य अर्थ के अभिधान (बोध) का निवारण हो जाने पर भी अनेकार्थक शब्द जो कहीं अन्य अर्थ का प्रतिपादन करता है; वहाँ अभिधा नहीं हो सकती; क्योंकि उसका नियन्त्रण हो चुका है और मुख्यार्थTE आदि के न होने के कारण लक्षणा भी नहीं हो सकती अपितु अञ्जन अर्थात् व्यञ्जनाव्यापार ही हो सकता है । मुख्यार्थबाध न होने पर भी तात्पर्यानुपपत्ति कारण लक्षणा नहीं मानी जा सकती; मुख्यार्थबाधादि के बिना यदि तात्पर्यानुपपत्तिमात्र से लक्षणा मानें तो 'सैन्धवमानय' यहाँ भी लक्षणा हो जायगी ?
राजधानीरूप प्रकरण के यञ्जना के द्वारा जो गजपक्षीय अर्थ
कारण अभिधा के एक अर्थ में ( राजपक्षीयार्थ में) नियन्त्रण हो जाने पर भी निकलता है और उन दोनों अर्थों में जो उपमानोपमेयभाव मानकर उपमा