Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 287
________________ द्वितीय उल्लासः १३५ मत्तः कोकिल इति वसन्ते । पातु वो दयितामुखमिति साम्मुख्ये । भात्यत्र परमेश्वर इति नियमनात् । अत एव मकरध्वजनियमितेत्यत्र निहतार्थकत्वं वक्ष्यति, लिङ्गपदेन प्रसिद्धिरेवोक्तेति केचित् । देवस्येति देवपदस्य राजाद्यर्थकत्वान्नानानार्थताक्षतिरित्यवधातव्यम् । पुरस्यासुरभेदस्य नगरस्य चारातेरित्यर्थभेदेन पुरारातिशब्दस्य नानार्थतया देवरूपशब्दान्तरमान्निध्यादसुरविशेषशत्रौ शिवे नियमनमिति केचित् । साम्मुख्य इति मुखपदस्य वदनसाम्मुख्यादैः शक्तत्त्वान्नानार्थकस्यौचित्येन साम्मुख्ये नियमनमित्यर्थः (पा) धातोर्नानार्थतया औचित्येन साम्मुख्ये नियमनं तेन मुखं (पातु) सम्मुखीभवत्वित्यर्थः, अन्यथा वदनस्यापि कामत्राणयोग्यतया मुखपदस्य साम्मुख्य नियमनानौचित्यादिति मम प्रतिभाति । यद्यप्यत्रापि सामर्थ्यमस्त्येव तथापि मधुनेत्यत्र तृतीयाया इव तद्बोधकस्याभावादौचित्योदाहरणता, जायगा । "कुपितो मकरध्वजः" यह तो प्रसिद्धि का ही उदाहरण है। प्रसिद्धि के कारण ही मकरध्वज का काम अर्थ में नियन्त्रण हो जायगा। इसीलिए "मकरध्वजनियमित" यहाँ काम से अतिरिक्त समुद्रादि अर्थ में प्रयोग के कारण निहतार्थ (उभयार्थक शब्द का अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग) दोष माना गया है। किसी का कहना है कि लिङ्ग पद से प्रसिद्धि ही ली जाती है। , 'देव' पद का राजादि अर्थ भी होता है अतः यह शब्द नानार्थक है। "देवस्य पुरारातेः" "पुरारि देव का" यहाँ "पुरारि" रूप अन्यशब्द के सान्निध्य से अनेकार्थक 'देव' शब्द का शम्भु अर्थ में नियन्त्रण हो गया। किसी ने पूर्वोक्त उदाहरण को और ढंग से घटाते हुए लिखा है कि 'पुर का अर्थ असुर-विशेष और नगर दोनों होता है । उसके अराति अर्थात् शत्रु ऐसा कहने पर पुराराति का अर्थ होगा 'असुर-विशेष' का शत्रु और नगर का शत्रु । परन्तु यहाँ देवरूप शब्दान्तर के सन्निधान से असुर-विशेष के शत्रु अर्थात् पुरनामक दैत्य के शत्रु शिव के अर्थ में नियमन हुआ है।' . "मधुना मत्तः कोकिल:" "कोकिल मधु से मत्त हो रहा है" यहाँ मधु सामर्थ्यवश वसन्त अर्थ में नियन्त्रित हो गया है; क्योंकि कोकिल को मत्त बनाने की क्षमता वसन्त में ही है। मधु के अन्य अर्थ शहद या शराब में नहीं। साम्मुख्य के कारण एक अर्थ में शब्दार्थ के नियन्त्रण का उदाहरण है "पातु वो दायितामुखम्" । पत्नी का मुख तुम्हारी रक्षा करे । यहाँ वदन और साम्मुख्य आदि अर्थ में प्रयुक्त होने के कारण अनेकार्थक मुख शब्द औचित्य के कारण साम्मुख्य (अनुकूलता) अर्थ में नियमित हो गया है। मेरे विचार में तो 'पा' धातू नानार्थक हैं, क्योंकि रक्षण कई प्रकार के होते हैं । इस तरह यहाँ औचित्य के कारण 'पातु' का 'सामुख्य' अर्थ में नियमन हुआ है । इसलिए 'पातु' का अर्थ सम्मुखीभबतु-सामने हो यह हुआ, अन्यथा दायितामुख को भी काम से रक्षण की योग्यता होने के कारण मुख पद का 'साम्मुख्य' अर्थ में नियमन मानना अनुचित होगा। यद्यपि यहाँ भी सामर्थ्य है और सामर्थ्यात् अर्थ के नियमन का उदाहरण इसे माना जा सकता है; तथापि सामर्थ्यमूलक अर्थ के नियमन के उदाहरण में "मधुना मत्तः कोकिलः" यहाँ जैसे सामर्थ्य के बोध के लिए तृतीया है, उस तरह यहाँ सामर्थ्यबोधक तृतीयादि का अभाव है। इसलिए इसे औचित्य का ही उदाहरण मानना चाहिए। देश का उदाहरण है 'भाति अत्र परमेश्वरः' यहाँ राजधानीरूप देश के कारण ईश्वर, महाधनी आदि अनेकार्थक परमेश्वर शब्द राजा अर्थ में नियन्त्रित हो जाता है। "राजधानी रूपात" यहाँ "पदार्थात्" शब्द का शेष

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