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द्वित्तीय उल्लासः
साहचर्य विरोधिता ।
"संयोगो विप्रयोगश्च अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य संन्निधिः ॥ सामर्थ्य मौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्यानवच्छेदे
विशेषस्मृतिहेतवः ॥ '
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इत्युक्त दिशा
जन्यशाब्दबोधत्वादेः प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वात् । एतेन नानार्थोपस्थितेरन्यतर तात्पर्यग्राहकत्वमेतेषां न त्वपरार्थग्रहप्रतिबन्धकत्वमननुगमादित्यपास्तम् । आद्यपदं व्याख्यातुमाह-संयोग इति, संयोगो गुणविशेषः, विप्रयोगः संयोगध्वंसो विभागो वा, साहचर्यम् एककालदेशावस्थायित्वम् एकस्मिन् कार्ये परस्परसापेक्षत्वं वा, 'विरोध' वध्यघातकभावः सहानवस्थानं च, अर्थः प्रयोजनं प्रकरणं वक्तृश्रोतृबुद्धिस्थता, लिङ्ग संयोगातिरिक्तसम्बन्धेन परपक्षत्र्यावर्त्तको धर्मः, न त्वसाधारणः, सशङ्खचक्र इत्यत्रातिव्याप्तेः, “शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः" समासाद्यनधीनस मानार्थताकशब्दान्तरसमभिव्याहारः समासाद्यनधीनत्व विशेषणात् सशङ्खचक्र इत्यत्रातिव्याप्तिः, समानार्थताकेति विशेषणात् 'स्थाणुं भज भवच्छिदे' इत्यत्रातिव्याप्तिश्च निरस्ता । प्रदीपकृतस्तु समानार्थक शब्दान्तरसामानाधिकरण्यं तदर्थः, हरी शङ्खचक्रे इति च संयोगोदाहरण मित्याहुः, 'सामर्थ्यं' कारणता, . औचिती योग्यता, , देशकालौ प्रसिद्धौ व्यक्तिलिङ्ग पुंस्त्वादि, स्वर उदात्तादिः, अनवच्छेदे बाहुल्ये, विशेषस्मृतिहेतवः अविवक्षितार्थान्वयानुभवप्रतिबन्धेन विवक्षितार्थान्वयानुभवप्रयोजका इत्यर्थः । पर ये प्रकरणादि उनमें से एक अर्थ में तात्पर्यग्रहण कराते हैं, अन्य अर्थ के ग्रहण में ये प्रतिबन्धक नहीं बनते; क्योंकि ये स्वयं अननुगत हैं ।
आदिम (प्रथम) पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-संयोग इति । 'संयोग' 'गुणविशेष' को कहते हैं । विप्रयोग का अर्थ है संयोगध्वंस या विभाग । एककाल या एकदेश में रहना 'साहचर्य' कहलाता है अथवा एककार्य में परस्परसापेक्ष होना ही साहचर्य है । विरोध वध्य घातकभाव को कहते हैं । अर्थात् वह मनोभाव विरोध है जो एक दूसरे को परस्पर मारने या नुकसान पहुँचाने की प्रेरणा देता है । साथ-साथ नहीं रह सकना भी विरोध कहलाता है । 'अर्थ' का तात्पर्य है 'प्रयोजन' । 'प्रकरण' कहते हैं सन्दर्भ को । यह वक्ता और श्रोता की बुद्धि में रहता है । लिङ्ग वह धर्म है जो संयोग-सम्बन्ध से अतिरिक्त सम्बधों से परपक्ष की व्यावृत्ति करने में समर्थ हो । असाधारण हेतु को यहाँ लिङ्ग नहीं माना गया है। वैसा मानने पर "सशंखचको घरः " यहाँ अतिव्याप्ति दोष हो जाएगा । समासादि के विना समानार्थक (अन्वितार्थक ) शब्दान्तर के समभिव्याहार (सहोक्ति) को सन्धि कहते हैं। 'समासाद्यधीन' विशेषण के कारण 'सशंखचक्रो हरिः' में और 'समानार्थकता' इस विशेषणके कारण "स्थाणु' भज भवच्छिदे" यहाँ अतिव्याप्ति नहीं हुई । प्रदीप कार ने सन्निधि का लक्षण करते हुए लिखा है कि “समानार्थक शब्दान्तरसामानाधिकरण्यम्' समानार्थवाले अन्य शब्दों की समानाधिकरणता ही सन्नधि है । इस लक्षण में सम्भावित अतिव्याप्ति के निवारण के लिए संयोग का उदाहरण 'हरी शङ्खचक्र' यह दिया है ।
'सामर्थ्य' का अर्थ 'कारणता' है । औचिती' योग्यता को कहते हैं। देश काल का अर्थ प्रसिद्ध हो है । व्यक्ति का अर्थ 'लिङ्ग' स्त्रीलिङ्ग, पुंल्लिङ्ग आदि है । स्वर का तात्पर्यं उदात्तादि है । अनवच्छेदे का अर्थ है बाहुल्य । "विशेषस्मृतिहेतव:" अर्थात् ये प्रकरणादि अविवक्षित अर्थ के साथ अन्वय के अनुभव में प्रतिबन्धक बनकर विवक्षित अर्थ के अन्वयानुभव के प्रयोजक (सम्पादक) होते हैं।