Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 284
________________ भानानापत्तेः, अत एवैकतरमात्रस्मरणानुकूलत्वं नियन्त्रणं विशेषस्मृतिहेतव इत्युक्तरित्यपास्तं, पदार्थोपस्थिति विना संयोगादिज्ञानस्यैवासम्भवाच्चेति । नाप्यप्रकृताद्यर्थगोचरशाब्दबोधानुत्पादकत्वम्, एवं सति द्वितीयार्थगोचराभिधाजन्यशाब्दबोधत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वपर्यवसाने "सुव्वइ समागमिस्सई" इत्यादी व्यङ्गयान्तरबोधापत्तेः द्वितीयार्थगोचरशाब्दबोधत्वमात्रस्य तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वे भद्रात्मन' इत्यत्र व्यञ्जना हस्तिबोधानापत्तेरिति ।। अत्र ब्रम:--अप्रकृताद्यर्थगोचराभिधाजन्य-शाब्दबोधत्वमेव प्रकरणादिप्रतिबध्यतावच्छेदक 'सुव्वई' इत्यादौ व्यङ्गयान्तरबोधाभावश्च कारणान्तराभावप्रयुक्त एव, न तु प्रकरणादिप्रतिबन्धकत्वप्रयुक्तः, तत्र प्रकरणादेर्व्यङ्गयबोधेऽजनकत्वात्, तदभावे व्यङ्गयमात्रानवभासात्, वाक्यार्थबोधेनैव शब्दस्य चरितार्थत्वात्, न चाननुगतानां संयोगादीनां कथमनुगतकार्यजनकत्वमिति वाच्यम्, कार्याणामप्यननुगतत्वात् संयोगे संयोगाविषयकाभिधाजन्यशाब्दबोधत्वस्य साहचर्यादावसहचरितादिविषयकाभिधा यदि नियन्त्रण का यह अर्थ करें कि 'शक्ति के द्वारा यहाँ द्वितीय अर्थ प्रतिपादक शब्द (विषयक) की स्मति प्रकरणादि के कारण उत्पन्न नहीं हुई या द्वितीयार्थ-विषयक स्मति की उत्पत्ति नहीं हुई तो श्लेष अलङ्कार में दोष होगा, वहाँ द्वितीयार्थ का स्मरण अभीष्ट है, परन्तु वहाँ भी तूल्यन्याय से द्वितीय अर्थ का भान नहीं होगा। इसीलिए जो यह कहते थे कि यहाँ “विशेषस्मृतिहेतवः" यह कहा गया है, इससे सिद्ध हुआ कि यहाँ नियन्त्रण का अर्थ है दोनों अर्थों में से एक ही अर्थ की स्मृति अनुकूलता ।' उनका यह मत भी उक्त युक्ति (श्लेषवाली युक्ति) से परास्त हो गया । दूसरी बात यह कि पदार्थ की उपस्थिति के बिना संयोगादिज्ञान ही नहीं हो सकता। नियन्त्रण का अर्थ अप्राकरणिक अर्थ (गोचर)वाले शाब्दबोध की अनुत्पादकता भी नहीं ले सकते क्योंकि ऐसा मानने पर यही अर्थ होगा कि 'प्रकरणादि द्वितीय अर्थ को प्रतीत करानेवाली अभिधा से होनेवाले शाब्दबोध के प्रतिबन्धक हैं, तब तो "सुब्वइ समागमिस्सई" यहाँ भी व्यङ्गयान्तर का बोध होने लगेगा ? द्वितीयार्थगोचर शाब्दबोधत्व मात्र का यदि प्रतिबन्धक मानें तो "भद्रात्मनः" यहाँ पर व्यञ्जना से हाथी के पक्षवाले अर्थ का भी बोध नहीं होगा।' इस प्रकार की विप्रतिपत्ति में हमारा मत है कि 'अप्राकृत (अप्राकरणिक) अर्थवाली अभिधा से जन्य शाब्दबोध ही प्रकरणादिप्रतिबध्यतावच्छेदक है, अर्थात् प्रकरणादि अप्राकरणिक अर्थ को प्रतीत करानेवाली अभिधा से होनेवाले शाब्दबोध का प्रतिबन्धक है।' "सुव्वइ" इत्यादि स्थल में व्यङ्गयान्तर की प्रतीति जो नहीं हुई इसका हेतु व्यङ्गचबोध के लिये अपेक्षित कारणों का अभाव ही समझना चाहिए। न कि प्रकरणादि के प्रतिबन्धक होने के कारण वहां व्यङ्गयान्तरबोध का अभाव मानना चाहिए । बहाँ प्रकरणादि व्यङ्गयबोध का जनक नहीं है । यदि ऐसा होता तो प्रकरणादि के अभाव में व्यङ्गय का अवभास नहीं होता। जब कि यहां तो वाक्यार्थबोध कराकर शब्द चरितार्थ होगया है। संयोगादि स्वयं अनुमत हैं-एकरूपेण ज्ञान या निश्चित धर्म नहीं हैं फिर उनसे अनुगत अर्थ याने निश्चित अर्थ का भान कैसे हो जाता है, संयोगादि को अनुगतकार्यजनक कैसे माना जाय? यह एक प्रश्न है । इसका उत्तर है कि कार्य भी अननुगत ही हैं । संयोग में विप्रयोगविषयक जो अमिधाजन्य शाब्दबोध है उसे प्रतिबन्धक माना गया है और साहचर्यादि में असाहचर्यादिविषयक अभिधाजन्य जो शाब्दबोध है, उसे प्रतिबन्धक माना गया है। इस तरह मानने पर उनका मत स्वयं खण्डित हो जाता है जो यह कहते थे कि अनेकार्थ की उपस्थिति होने

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