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रितीय उल्लासः
अभिधामूलं त्वाह[सू० ३२] अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते।
संयोगाद्यैरवाच्यार्थधीकृव्यापृतिरञ्जनम् ॥ १८ ॥ तत्र मानमपि तु वाच्यलक्ष्यप्रतीतपदार्थानुपपत्तिरूपाऽर्थापत्तिरेव सर्वत्र' व्यञ्जनायां मानम् अत एव [अ] वाच्यार्थधीकृदित्याहेति भाव इति व्याचक्ष्महे । अनेकार्थस्यानेकत्र गृहीतशक्तिकस्य संयोगाद्यैर्वाचकत्वे नियन्त्रित इत्यन्वयः । वाचकत्वं वाचकधर्मोऽभिधैव, अवाच्येति, अवाच्यस्तदानीमभिधानुपस्थाप्यो योऽ र्थस्तस्य धीः स्मरणं तस्य जनिकेत्यर्थः । व्यापृतिर्व्यापारः, अञ्जनं व्यञ्जनेत्यर्थः ।
ननु किमत्राभिधाया नियन्त्रणं? न तावदग्रहणं, तद्ग्रहणस्य कोशादिना जातत्वात्, नापि तद्ग्रहणसंस्कारानुत्पादनं, तद्ग्रहाव्यवहितोत्तरक्षणे प्रकरणादेरसत्त्वेन तदानीं संस्कारोत्पत्ती बाधकाभावात् । न च द्वितीयार्थविषयकशब्दस्मृतेस्तदर्थविषयकस्मृतेर्वा शक्त्या अनुत्पादन, श्लेषेऽपि द्वितीयार्थव्यञ्जनावृत्ति की सत्ता में "अवाचकप्रयोगानुपपत्तिरूपा" अर्थापत्ति प्रमाण हुई। वह “गङ्गाया गोषः" इत्यादि लाक्षणिक पद में ही मानी जा सकती है, "भद्रात्मनः" इत्यादि वाचक पद में भी नही मानी जा सकती; क्योंकि वहां जिन अर्थों की प्रतीति हो रही है। उनके वाचक शब्द वहां हैं; तब वहां द्वितीय अर्थ और उपमालङ्कार की प्रतीति के लिए कोई अन्यवृत्ति माननी होगी। जब ऐसा है; तब यहां भी उसी वृत्ति से अर्थ प्रतीति हो जाएगी, व्यञ्जना की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर देने के लिए वृत्तिकार ने वृत्ति में लिखा है "एवं लक्षणामूलं व्यञ्जकत्वमुक्तम्"। इस प्रकार पूर्वोक्त वाक्य का यह तात्पर्य है कि व्यञ्जना में 'स्वायत्ते शब्दप्रयोगेऽवाचकप्रयोगानुपपत्तिरूप अर्थापत्ति" प्रमाण नहीं है किन्तु वाच्यलक्ष्यप्रतीत पदार्थानुपयत्तिरूप अर्थापत्ति अर्थात् वाच्य और लक्ष्य अथं से प्रतीत होनेवाले पदार्थों की अनुपपत्ति के आधार पर मानी गयी अर्यापत्ति ही सब जगह व्यञ्जना में प्रमाण है। अतएव
. अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते । संयोगाद्यैरवाच्यार्थधीकृव्यापृतिरञ्जनम् ॥" इस कारिका में "अवाच्यार्थधीकृत" कहा गया है। (कारिकार्थ) संयोग आदि के द्वारा अनेकार्थक शब्दों के वाचकत्व के (किसी एक अर्थ में) नियन्त्रित हो जाने पर (उससे भिन्न) अवाच्य अर्थ की प्रतीति करानेवाला शब्द का व्यापार व्यंजना अर्थात् अभिधामूला व्यञ्जना कहलाता है।
कारिका में अनेकार्थस्य का अर्थ है-अनेकत्र गृहीतशक्तिकस्य अर्थात अनेक अर्थ में जिस शब्द का संकेत हो । 'अनेकार्थस्य शब्दस्य संयोगाद्यः वाचकत्वे नियन्त्रिते' इस प्रकार का अन्वय है। वाचकत्व का अर्थ है वाचक धर्म अर्धात अभिधा ही। 'अवाच्यार्थधीकृद् व्यापति' का अर्थ है अवाच्य (उस काल में अभिधा से अनुपस्थाप्य--अभिधा के द्वारा प्रतीत नहीं कराने योग्य जो अर्थ) उसके (धी) स्मरण की जननी (वृत्ति) व्यंजना है।
यहां प्रश्न उठता है कि 'संयोगादि के द्वारा अभिधा पर जिस नियन्त्रण की बात कही गयी; वह नियन्त्रण क्या है और किस प्रकार का है ? उस नियन्त्रण का अर्थ अभिधा का अग्रहण नहीं हो सकता अर्थात् संयोगादि के कारण वहां अभिधा का ग्रहण नहीं हुआ, ऐसा अर्थ नहीं किया जा सकता; क्योंकि कोशादि के द्वारा "हरि" आदि शब्दों की अभिधा का प्रतिपादन हो चुका है।'
नियन्त्रण का अर्थ यह भी नहीं लिया जा सकता कि 'प्रकरणादि के द्वारा अभिधा से गृहीत संस्कार की उत्पत्ति या प्ररोह नहीं हुआ; क्योंकि सकेतग्रह या अभिधाग्रह के अव्यहित उत्तरक्षण में प्रकरणादि के नहीं रहने के कारण उस समय तदनुकूल संस्कार की उत्पत्ति में कोई बाधक नहीं दिखाई पड़ता।