Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 281
________________ द्वितीय उल्लासः १२६ तटादौ ये विशेषाः पावनत्वादयस्ते चाभिधा-तात्पर्यलक्षणाभ्यो व्यापारान्तरेण गम्याः । तच्च व्यञ्जनध्वननद्योतनादिशब्दवाच्यमवश्यमेषितव्यम् ।। वृत्त्यन्तरेण बोधे विरामदोषाभावेऽपि न काऽप्यनुपपत्तिरिति भाव इति परमानन्दचक्रवर्तिनः । लक्षित इति पदं व्याचष्टे-तटादाविति। विशेषा इत्यस्यार्थमाह-पावनत्वादय इति । मदीयाद्यव्याख्यानपक्षे पावनत्वमादौ येषां ते पावनत्वादयः तीरत्वादय इत्यर्थः । स्युरित्यनन्तरं पूरणीयं शेषमाह--ते चेति, इदं चान्त्यपक्षद्वये, आद्यपक्षे तु प्रघट्टकार्थोपसंहारोऽयमिति द्रष्टव्यम् । तात्पर्येति । तापर्यस्य संसर्गमात्रबोधकतया भट्ट र्वृत्तित्वमङ्गीकृतं, न तु तस्य पदार्थबोधार्थमपि तैर्वृत्तित्वमभ्युपेयम्, वृत्त्यन्तरोच्छेदापत्तेरिति भावः । वयं तु-तात्पर्यपदेनात्राऽऽकाङ्क्षायोग्यताऽऽसत्त्येतत् त्रितयमुच्यते, तात्पर्यार्थोऽपि केषुचिदित्यत्र द्वितीयव्याख्याने तेषामेव तात्पर्यपदेनाभिधानात् । तथा चाकाङ्क्षादीनामन्वयबोधजनकत्वादिरूपपर्यवसितलक्षणानां धमिग्राहकमानेनान्वयानुभवमात्रजनकत्वमेव, न तु पदार्थस्मृतिजनकत्वमपि । तथा इसलिए लक्ष्यार्थ-प्रतीति के उत्तरकाल में व्यङ्ग्यार्थप्रतीति मानने में कोई क्षति नहीं है। व्यङ्ग्यरूपप्रतिपाद्य अर्थ की समाप्ति नहीं होने से "प्रतीतिपर्यवसानविरह" रूप आकांक्षा वहाँ है ही। वृत्त्यन्तर के द्वारा होनेवाले बोध में विरामदोष यदि न भी मानें तो कोई दोष नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि तीर की उपस्थिति लक्षणा से हुई है इसलिए उसकी वृत्ति लक्षणावृत्ति अलग है और शैत्यादि की उपस्थिति व्यञ्जना से हुई है, अत: उसकी वृत्ति व्यञ्जना अलग है । इसलिए विरामदोष यहाँ नहीं लग सकता ; हाँ यदि एक ही वृत्ति अभिधा या लक्षणा या व्यञ्जना से मुख्यार्थ, आरोपितार्थ, और व्यङ्ग्यत्वेन अभिमतार्थ की प्रतीति मानें तो दोष लगेगा क्योंकि एक अर्थ को बताकर क्षीणशक्तिक एक व्यापार द्वितीय अर्थ को नहीं बता सकता । यह मत 'परमानन्द चक्रवर्ती का है। वृत्तिकार कारिका में प्रयुक्त लक्षित पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं:-तटादौ इत्यादि । “विशेषाः" .का अर्थ कहते हैं "पावनत्वादयः" । टीकाकार नैयायिक श्रीमुनिजी लिखते हैं कि मेरी आदिम व्याख्या के अनुसार "पावनत्वादयः" का विग्रह होगा "पावनत्वम् आदी येषाम् ते पावनत्वादयः" और अर्थ होगा तीरत्वादि । क्योंकि "पावनत्वविशिष्ट तीर" इस बोध में पावनत्व प्रकारता-सम्बन्ध से तीरत्व के आदि में है। "स्युः” इसके बाद पूरणीय शेष (जोड़ने के योग्य आकांक्षित पद) बताते हुए लिखते हैं- 'ते च'। "ते च" इत्यादि पंक्ति द्वारा प्रतिपादित तात्पर्य अन्तिम दो पक्षों में लेना चाहिए । आदिम पक्ष में तो यह सूत्र सन्दर्भ में आये हुए अर्थ का उपसंहार स्वरूप है। वृत्ति में 'तात्पर्य' का उल्लेख किया गया है। तात्पर्य को मीमांसकों (भट्ट मीमांसकों) ने संसर्ग वाक्यगत सम्बन्ध मात्र बोध के लिए वृत्ति माना है। उन्होंने भी इसे पदार्थबोध के लिए वत्ति नहीं माना है। इसे यदि पदार्थबोधक वृत्ति मानें तो अभिधादि वत्ति में से किसी एक वत्ति का या समस्त वृत्तियों का उच्छेद हो जायेगा; तात्पर्यवृत्ति से ही जब मुख्यार्थ या मुख्यादि का बोध हो जाएगा तो उन वृत्तियों को मानने से क्या लाभ ? हम तो यहाँ यह समझते हैं कि तात्पर्य पद से यहाँ आकांक्षा, योग्यता और आसत्ति ये तीनों अभिप्रेत हैं। क्योंकि "तात्पर्यार्थोऽपि केषुचित्" इस कारिका की द्वितीय व्याख्या में तात्पर्य पद से उन्हीं आकांक्षादि का अभिधान हा है। इस तरह स्पष्ट है कि जिन आकांक्षा, योग्यता आदि का कार्य अन्वयबोध कराना मात्र है; उनमें धर्मी ग्राहक

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