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..काव्यप्रकाश
व्याख्यातम् ।
[सू० ३१] विशेषाः स्युस्तु लक्षिते ॥१८॥
विशेषास्तीरत्वादयः स्युः प्रकारतया प्रतीतिविषया इति शेषः । तथा च यथाऽकाशादिपदाच्छब्दाश्रयत्वादेः प्रकारतया भानं तथा तीरत्वादेरपि प्रकारतया भानं नियामकत्वान्नियमद्वयस्येति भावः । यद्वा शैत्यादेर्व्यञ्जनया भानाभ्युपगमे तीरनिष्ठतया कथं भानमित्यत आह-विशेषा इति । विशेषाः शैत्यपावनत्वादयः स्युरित्यनन्तरं व्यञ्जनया प्रतीति विषया इति शेषः, तथा च व्यञ्जनया विशिष्टस्यैव बोधो न तु विशेषणमात्रस्येति भाव इति मम प्रतिभाति । .
ननु व्यञ्जनयाऽपि प्रतीतिर्लक्ष्यप्रतीतिकाले ? उत्तरकाले वा ?। नाद्यः, पदार्थज्ञानं विना शब्दमात्रस्याव्यञ्जकत्वात् सहकारिविरहात्, नान्त्यः, शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्यव्यापारायोगादित्यत आह-विशेषा इति । लक्षिते लक्षणया प्रत्यायिते, तथा च लक्ष्योपस्थित्यनन्तरं व्यञ्जनया वाक्यैकवाक्यतावत् प्रयोजन मादायान्वयबोधसम्भवाद् व्यङ्गयरूपप्रतिपाद्यापर्यवसानादाकांक्षासत्त्वाद् ।
उन्होंने यह कारिका लिखी है "विशेषाः इति"। उनके विचार में विशेषाः का अर्थ शैत्यपद और पावनत्वादि है। "स्युः" के बाद वे "व्यञ्जनया प्रतीतिविषयाः" इस पदसमूह का 'शेष' या अध्याहार मानते हैं । इस तरह इस मत में कारिका का अर्थ हुआ कि व्यञ्जना के द्वारा विशिष्ट का ही बोध होता है। केवल विशेषण का (शैत्य-पावनत्व) का ही नहीं। इस तरह टीकाकार ने 'इति मम प्रतिभाति' लिखकर यह दिखाया है कि मुझे ऐसा लगता है कि उस विद्वान् का तात्पर्य ऐसा रहा होगा ! , अस्तु, यह माना कि शीतत्व-पावत्वादिविशिष्ट तीर की प्रतीति व्यञ्जना से होती है; परन्तु यहाँ प्रश्न यह है कि यह प्रतीति लक्ष्यार्थ की प्रतीतिकाल में होती है अथवा लक्ष्यार्थ की प्रतीति के बाद में?' .
प्रथम पक्ष नहीं माना जा सकता; क्योंकि जिसके अर्थ का ज्ञान नहीं है। उस शब्द का व्यञ्जक नहीं माना गया है । अर्थात् अर्थविशिष्ट शब्द को ही व्यञ्जक माना गया है । इस तरह लक्ष्यार्थ के प्रतीति-काल में जब कि अर्थ का स्फुट ज्ञान नहीं हुआ है; गङ्गा आदि शब्द को व्यञ्जक नहीं माना जा सकता। अतः लक्ष्यार्थ-प्रतीतिकाल में व्यङ्ग्य-प्रतीति नहीं हो सकती। क्योंकि शब्द को व्यञ्जक बनाने में जिस अर्थ का सहकार आवश्यक होता है; वह सहकारी वहां नहीं है।
दूसरा पक्ष भी युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि पूर्वोक्तं मतानुसार व्यञ्जना जब तीर अर्थ को बताकर विरत हो चूकी तो वह शैत्यादि को बताने में समर्थ नहीं हो सकेगी; क्योंकि 'शब्दबुद्धिकर्मणां विरम्य व्यापाराभावः' इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि और कर्म के व्यापारों की तरह शब्द के व्यापार भी विरत होने पर कार्यान्तर करने में समर्थ नहीं होते । इसीलिए यहाँ लिखा गया है 'विशेषाः' । इस मत में कारिका का अर्थ इस प्रकार है- लक्षित अर्थात् लक्षणा के द्वारा प्रत्यायित (प्रतिपादित) अर्थ में विशेष हो सकते हैं । अर्थात् पहले लक्षणा से केवल तट की उपस्थिति होगी। बाद में लक्षणामूलक व्यञ्जना से उस तटादिरूप लक्ष्य अर्थ में शैत्यादिप्रयोजनों की प्रतीति हो सकती है।
पश्य मृगो धावति" में जैसे वाक्यकवाक्यता होती है उसी तरह "गड़गायां घोषः" में लक्ष्यार्थ (तीर) की उपस्थिति होने के बाद व्यञ्जना के द्वारा प्रयोजन की उपस्थिति होगी और उन दोनों में अन्वय हो सकेगा।