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द्वितीय उल्लासः ।
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कुन्तकुन्तत्वयोरपि शाब्दबोधविषयतार्थ लक्षणायां लक्षणात्रयापत्तेः । किञ्च लक्ष्यतावच्छेदके लक्षणास्वीकारेऽपि तीरांशे तीरत्वस्य गङ्गात्वस्य वा लक्ष्यतावच्छेदकत्वाभ्युपगमे नोक्तनियमद्वयापायः, तीरांशे तीरत्वगङ्गात्वयोरन्यतरस्य प्रकारत्वात् तीरांशे तीरत्वगङ्गात्वप्रकारकस्य तीरत्वगङ्गात्वांशे निष्प्रकारकस्य शाब्दबोधस्योदयात्, शैत्यादेस्तीरांशे लक्ष्यतावच्छेदकत्वाभ्युपगमे तु प्रोक्तनियमद्वयापाय एव, तीरत्वेनोपस्थिते गङ्गासंयोगग्रहेण शैत्यादेस्तदन्यत्वाद् गङ्गाशब्दशक्तिजन्यस्मृति प्रकारीभूतगङ्गात्वान्यत्वाच्चेति नायमपि पन्थाः । ननु विशिष्टलक्षणापक्षे लक्षणयैव वैशिष्ट्यांशस्यापि भानं विशेष्यमात्र लक्षणायां तु विशकलिततदुभयभानं स्यादित्यत आह-विशेषा इति, लक्षिते तीरादौ
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आकाश पद से शब्दाश्रयत्व का भी बोध होता है; किन्तु वहाँ शब्दाश्रयत्व की उपस्थिति वृत्त्या नहीं होती है। यदि यह माने कि जिन अर्थों का. शाब्दबोध में भान होता है; उनकी उपस्थिति किसी न किसी वृत्ति से होनी ही चाहिए तब तो "कुन्ताः प्रविशन्ति" में कुन्त और कुन्तत्व को भी शाब्दबोध का विषय बनाने के लिए उनमें भी लक्षणा माननी होगी और इस तरह वहाँ तीन-तीन लक्षणा स्वीकार करना अनिवार्य होगा।
तथा लक्ष्यतावच्छेदक में लक्षणा स्वीकार करने पर भी तीर अंश में तीरत्व या गङ्गात्व को लक्ष्यतावच्छेदक मानने पर उक्त नियमद्वय का भङ्ग नहीं होगा। तीर अंश में तीरत्व और गङ्गात्व दोनों में से कोई एक प्रकार है, इसलिए तीर अंश में तीरत्व-गङ्गात्वप्रकारक और तीरत्वगङ्गात्व अंश में कोई प्रकार नहीं है अतः निष्प्रकारक शाब्दबोध होगा।
शैत्यादि को तीरांश में यदि लक्ष्यतावच्छेदक मानें तो पूर्वोक्त नियमद्वय का भङ्ग होगा ही; क्योंकि तीरत्वेन जिस (तीर) की उपस्थिति हुई है; उसमें गङ्गा के संयोग का भान होता है, शैत्यादि तो उससे अन्य है और उस गङ्गात्व से भी अन्य है जो गङ्गा शब्द की शक्ति से जन्य स्मृति में प्रकारी (विशेषणी) भूत है इसलिए यह भी (निर्दुष्ट) मार्ग नहीं हो सकता । (इसलिए विशिष्ट में लक्षणा नहीं मानी जा सकती।)
विशिष्टलक्षणावाद में (विशिष्ट में लक्षणा मानने का जो पक्ष है उसमें) लक्षणा से ही वैशिष्ट्य अंश का भी भान हो जायगा, विशेष्यमात्र (तीर मात्र) में लक्षणा मानने पर तो अलग-अलग उन दोनों का भान होगा; इसलिए कहते हैं-"विशेषाः स्युस्तु लक्षिते" । लक्षित तीरादि में विशेष अर्थात तीरत्वादि, विशेषणरूप में प्रतीति के विषय होते हैं। सत्र में "प्रकारतया प्रतीतिविषयाः" इसका शेष मानना चाहिए। इस तरह यह तात्पर्य निकला कि जैसे आकाशादि पद से शब्दाश्रयत्व आदि का प्रकारतया भान होता है; उसी तरह लक्षित तीरादि में तीरत्व आदि का भी प्रकारतया भान हो जायगा किन्तु शीतत्वादि का भान नहीं होगा क्योंकि उसकी उपस्थिति वृत्ति (अभिधादि वत्ति में से किसी वृत्ति) के द्वारा नहीं है । इसलिए शीतत्वादि उपस्थिति को वृत्तिजन्योपस्थिति बनाने के लिए व्यञ्जना माननी चाहिए। वृत्त्या अनुपस्थित शैत्यादि का शाब्दबोध में भान नहीं मान सकते; क्योंकि पूर्वोक्त दो नियम शाब्दबोध के नियामक हैं इस तरह किसी विद्वान् ने उक्त सूत्र की व्याख्या की है।*
किसी को व्याख्या कुछ और है-वह कहता हैं कि ग्रन्थकार ने सोचा कि यदि शैत्यादि का भान व्यञ्जना से मानेंगे, तो उस शेत्यादि का भान तीरनिष्ठतया अर्थात् तीर में कैसे होगा? इसी का उत्तर देने के लिए
१. वृत्योपस्थितस्य॑व शाब्दबोधे भानम् (२) प्रत्ययानां प्रकृत्यर्यान्वितस्वार्थबोधकत्वम् ।