________________
११६
काव्य-प्रकाशः
एवमपि प्रयोजनं चेल्लक्ष्यते तत् प्रयोजनान्तरेण तदपि प्रयोजनान्तरेण प्रकृताप्रतीतिकृद् अनवस्था भवेत् ।
ननु पावनत्वादिधर्मयुक्तमेव तटं लक्ष्यते । 'गङ गायास्तटे घोष' इत्यतोऽधिकस्यार्थ
प्रकृतेति । इदमुपलक्षणं प्रयोजनेऽपि प्रयोजन- प्रतीतावेकत्र व पुरुषायुषपर्यवसानात् प्रकृताप्रतीतिस्तदियमनवस्थेत्यपि बोध्यम्, ननु पावनत्वादिविशिष्टस्य लक्ष्यत्वे प्रयोजनमिह विरह एव दूषणमत आह—- गङ्गातटे घोष इत्यत इति। अधिकस्यार्थस्येति । लक्ष्यतावच्छेदकतया शैत्यादिप्रतीतिः प्रयोजनमित्यर्थः । निरूढलक्षणातो भेदस्य तावन्मात्र णोपपत्तेः । अतो न मुख्यार्थबाधाभावादिदोषावकाशः लक्ष्यतावच्छेदके लक्षणाया अभावादिति भावः, न च शैत्यादेस्तटावृत्तित्वेन तटावच्छेदकतया कथं
प्रयोजन को लक्षणागम्य मानने लगें तो एक प्रयोजन को लक्ष्यार्थ बनाने के लिए दूसरे प्रयोजन की कल्पना करनी होगी और दूसरे प्रयोजनों को लक्ष्य बनाने के लिए तीसरे प्रयोजन की आवश्यकता होगी और तीसरे के लिए चौथे की। इस प्रकार प्रयोजन की अविश्रान्त परम्परा की कल्पना के कारण मूलभूत प्रथम प्रयोजन (जिसके लिए लक्षणा की गई थी ) की प्रतीति में बाधा डालनेवाली (मूलक्षयकारिणी) अनवस्था होगी।
"मूलक्षयकारिणी" की व्याख्या करते हुए वृत्ति में लिखते हैं- - "प्रकृताप्रती तिकृत्" इसका अर्थ है कि प्रकृत (प्रस्तुत - मूलभूत प्रथम प्रयोजन) की अप्रतीति करानेवाली अनवस्था होगी, इस वृत्तिग्रन्थ को उपलक्षण मानना चाहिए । इससे यह सिद्ध होगा कि प्रयोजन को प्रयोजनान्तर से लक्ष्यार्थं मानने पर अन्य दोष भी होंगे । वह है यदि पूर्व-पूर्व प्रजनको लक्ष्य बनाने के लिए दूसरे, तीसरे चौथे आदि उत्तरोत्तर प्रयोजनों की कल्पना की जाय तो एक ही प्रयोजनवती लक्षणा के उदाहरण को समझाने में पुरुष की सारी आयु समाप्त हो जायेगी। इस तरह प्रयोजन को प्रयोजनान्तर से लक्ष्य बनाने पर न केवल प्रकृति प्रयोजन की अप्रतीति करानेवाली अनवस्था होगी। प्रत्युत एक ही प्रयोजनवती लक्षणा के समझने में मनुष्य की आयु समाप्त हो जायगी ।
बीज और वृक्ष के प्राथम्य में जो अनवस्था होती है वह प्रकृताप्रतीतिकारिणी नहीं होती है किन्तु यह अनवस्था प्रकृताप्रतीतिकारिणी होगी ।
यहाँ एक प्रश्न उठाते हैं कि पावनत्वादि धर्म से युक्त तट को लक्षणागम्य माना जाय तो क्या क्षति है ? यदि यह कहें कि प्रयोजन - विशिष्ट में लक्षणा मानने पर प्रयोजन का विरह (अभाव) ही दोष हैं, तो यह कहना इसलिए उपयुक्त नहीं है कि 'गङ्गायां घोष:' यहाँ "गङ्गातटे घोष: " इससे अधिक जो पावनादि - विशिष्ट तीर अर्थ की प्रतीति होगी उसे ही प्रयोजन मान लेंगे। इस तरह विशिष्ट में लक्षणा करने पर प्रयोजन का अभाव नहीं रह जायगा और विशिष्ट में लक्षणा हो ही जायगी तब व्यञ्जना मानने से क्या लाभ ?
इन्हीं बातों को "ननु पावनत्वादिधर्मयुक्तमेव" से "कि व्यञ्जनया" यहाँ तक के वाक्यों में लिखते हैं । विशिष्ट में — अर्थात् शीतश्व - पावनत्व - विशिष्ट तट में - लक्षणा करने पर लक्ष्यतावच्छेदकतया शैत्यादि की प्रतीति ही प्रयोजन होगी, इसी बात को " गङ्गायास्तटे घोषः " यहाँ से "गङ्गायां घोषः " में हुई अधिक अर्थ की प्रतीति ही प्रयोजन है; इन शब्दों में बताया है ।
शीतस्व-पावनत्वादि - विशिष्ट तट में लक्षणा मानने पर लक्ष्यतावच्छेदकरूप में शैत्यादि की प्रतीति ही प्रयोजन होगी । प्रयोजन की यही प्रतीति, निरूढा लक्षणा से प्रयोजनवती लक्षणा को भिन्न प्रमाणित करने में साधक