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काव्य-प्रकाशः
चेन्द्रियस्य ज्ञानद्वारा फलं, संवित्तिर्व्यवसायरूपा साक्षादेव, एवं च कारिकायां ज्ञानपदं करणव्युत्पन्नमेवेत्याहु: |
ननु कीदृशमत्रानुमानम् ? न तावद्धेतुफले अन्यव्यापारगोचरे कार्यकारणभावापन्नत्वादित्याकारकं, प्रत्यक्ष प्रकटतयोदृष्टान्तयोः साध्यवैकल्यात्, न च शैत्यपावनत्वादिकं तीरज्ञानभिन्नं तत्फलत्वात् तीरज्ञानाहितज्ञाततावदित्याकारकमिति वाच्यं सिद्धसाधनात् फलत्वस्य जन्यत्वरूपत्वे स्वरूपासिद्धेः, जन्यप्रतीतिविषयत्वरूपत्वे प्रकटतारूपदृष्टान्ते साधनवैकल्यात्, अथ शैत्यादिज्ञानमेव फलं न
घटः” इस प्रकार का ज्ञान होता है। इसके बाद 'घट-विषयक ज्ञानवान् अहम्' अथवा 'घटमहं जानामि' इस प्रकार का ज्ञान होता है । इनमें "अयं घटः " यह ज्ञान पहला ज्ञान है, यह 'व्यवसाय' कहलाता है। दूसरा ज्ञान 'मैं घट को जानता हूँ या मुझे घट का ज्ञान है' बाद में होता है । यह दूसरा ज्ञान 'अनुव्यवसाय' कहलाता है । "अयं घटः " इस प्रथम ज्ञान का विषय घट होता है और 'घटमहं जानामि' या 'घटविषयकज्ञानवानहम्" इस दूसरे ज्ञान का विषय 'घटज्ञान' है । पहला व्यवसायात्मक ज्ञान अपने विषय 'घट' से उत्पन्न होता है उसी प्रकार दूसरा ज्ञान अपने विषय व्यवसायात्मक ज्ञान से उत्पन्न होता है। इसीलिये दूसरा ज्ञान 'अनुव्यवसाय' कहलाता है । अनुव्यवसाय 'घट' ज्ञान का फल हुआ । इस तरह घट ज्ञान के विषय 'घट' से उस 'घट' ज्ञान का फल अनुव्यवसाय भिन्न है । इसलिए विषय और ज्ञान के फल अलग-अलग होने चाहिए इन दोनों में कारण कार्यभाव सम्बन्ध है । इसलिए इन दोनों की उत्पत्ति समकालीन नहीं मानी जा सकती। अतः विशिष्ट में लक्षणा स्वीकार नहीं कर सकते ।
"हेतु और फल दोनों अलग अलग हैं" इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए जो अनुमान किया जायगा उसका स्वरूप क्या होगा ?
हेतु और फल दोनों अलग-अलग व्यापारगोचर (गम्य ) हैं क्योंकि उन दोनों में कार्य कारणभाव हैं जिनमें कार्य कारणभाव सम्बन्ध रहते हैं वे दोनों पृथक्-पृथक् व्यापारगम्य हुआ करते हैं जैसे प्रत्यक्षज्ञान का कारण नीलादि और फल प्रकटता दोनों अलग-अलग व्यापार- गोचर हैं इस प्रकार "हेतुफले तावदन्यव्यापारगोचरे कार्यकारणभावापन्नत्वाद् यथा प्रत्यक्षं प्रकटते" यह अनुमान का स्वरूप मान नहीं सकते; क्योंकि प्रत्यक्ष और प्रकटतारूप दृष्टान्त का कोई ( साध्य) उदाहरण स्थल नहीं है ।
शैत्यपावनत्वादिक तीरज्ञान से भिन्न हैं, क्योंकि वे (शीतत्व-पावनत्वादिक) तीरज्ञान के फल हैं, तीरज्ञान से आहित ( उत्पन्न ) ज्ञातता की तरह ( शैत्यपावनत्वादिकं तीरज्ञानभिन्नं तत्फलत्वात्, तीरज्ञानाहितज्ञाततावत् ), ऐसा अनुमान मानना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इसमें सिद्धसाधन दोष आता है। तीरज्ञानभिन्नत्व जो पहले से ही सिद्ध है, उसे ही सिद्ध करने के कारण सिद्धसाधन दोष स्पष्ट है। दूसरा दोष यह है कि यदि फलत्व को जन्यस्वात्मक मानें तो स्वरूपासिद्ध दोष होगा क्योंकि जन्यत्वरूप की ही असिद्धि है। यदि फलत्व को जन्यप्रतीतिविषयत्वात्मक मानें तो प्रकटतारूप दृष्टान्त में हेतु का अभाव होने से अनुमान नहीं होगा ।
'यदि शैत्यादिज्ञान को ही फल मानें और शैत्यादि को फल न मानें; तब तो अनुमान हो जायेगा' ऐसा मानने पर उन ग्रन्थों के साथ विशेष आयगा; जहाँ शैत्य पावनत्वादि को फल कहा गया है। इस विरोध के परिहार के लिए यह मानना पड़ेगा कि यद्यपि शैत्यादिज्ञान ही फल है, शैत्यादि नहीं, तथापि ज्ञानरूप फल का विषय होने के कारण शैत्यादि को भी फल उसी तरह कहा गया है जैसा कि घटज्ञान के शक्य होने पर भी शकयज्ञान के विषय होने के कारण घट आदि को लोग शक्य कह देते हैं। इस तरह यह अनुमान किया जा सकता है कि "शैत्यादिज्ञान तीरज्ञान