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द्वितीय उल्लास:
तु शैत्यादि क्वचित् फलत्वोक्तिश्च ज्ञानरूपफलविषयतया शक्यज्ञानविषयतया घटादेः शक्यत्वोक्तिवत् तथा च शैत्यादिज्ञानं तोरज्ञानाद् भिन्नं तोरज्ञानजन्यत्वात् तज्जन्यज्ञातताहेयोपादेय-ज्ञानवदित्यनुमानमिति चेद् ? न । शैत्यतीरयोभिन्नभिन्नज्ञानविषयताया अपि सम्भवेन सिद्धसाधनात्, विशिष्टलक्षणावादिमते स्वरूपासिद्धेः, तीरविशेषणकविशिष्टज्ञाने व्यभिचाराच्च । ननु करणफलं करणविषयभिन्नं करणफलत्वाद् ज्ञाततावत्, यद्वा करणविषयः करणफ करणविषयनीलादिज्ञानवत, करणं च फलायोगव्यवच्छिन्नं कारणं शब्दे वाक्यसम्बन्धादिः प्रत्यक्षे चेन्द्रियसन्निकर्षादिः, विषयता च व्यापारानुबन्धिनी। विवक्षितानुमितिश्च पक्षतावच्छेदकावच्छेदेन साध्यविषयिणी विवक्षिताऽतो न पक्षतावच्छेदकहेत्वोरभेदनिबन्धन सिद्ध-साधनावकाश इति चेद्, न, फलत्वस्य जन्यत्वरूपत्वे सिद्धसाधनात्, जन्यप्रतीतिविषयत्वरूपत्वे बाधात्, हेतोः साध्याभावव्याप्यत्वेन विरुद्धत्वाच्च, नापि करणं स्वविषयभिन्न-फलकं करणत्वात् ज्ञातताकरणवदित्यनुसे भिन्न है, क्योंकि वह शत्यादिज्ञान तीरज्ञान से जन्य है (उत्पन्न होता है) जैसे कि प्रत्यक्ष ज्ञान से जन्यज्ञातता अर्थात हेय और उपादेय का ज्ञान प्रत्यक्षज्ञान से भिन्न होता है।"
परन्तु इस प्रकार से अनुमान का स्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि शैत्य और तीर कभी भिन्न-भिन्न ज्ञानों के विषय भी बन सकते हैं; उस समय सिद्धसाधन दोष आयगा। वहाँ जन्य-जनकभाव भी नहीं होगा।
विशिष्ट में-शैत्यादिविशिष्ट तीर में लक्षणा माननेवालों के मत में स्वरूपासिद्ध दोष भी हो जायगा । जैसे "शब्दो गुणः चाक्षुषत्वात्" इस अनुमान में चाक्षुषत्वरूप हेतु श तरह विशिष्ट में लक्षणा मानने पर शैत्यादिज्ञानविशिष्ट तीरज्ञान में पूर्वोक्त जन्यजनकभाव सिद्ध नहीं होता; इसलिए पक्ष में हेतु के नहीं रहने के कारण स्वरूपासिद्ध दोष आयगा । तीर-विशेषणक-विशिष्ट ज्ञान में अर्थात् 'तीरनिष्ठं शंत्यादिकम्' इस ज्ञान में विशेषण-विशेष्यभाव के विपरीत होने के कारणं पूर्वोक्त जन्यजनकभाव में व्यभिचार भी आयगा।'
अच्छा; 'करण का फल करण के विषय से भिन्न होता है क्योंकि वह करण का फल है यथा ज्ञातता' ऐसा अनुमान का स्वरूप मानेंगे तो जैसे प्रत्यक्षज्ञान के करण चक्षरादि इन्द्रिय के विषय नीलघट से उसका फल ज्ञातता भिन्न होती है इसी तरह लक्षणारूपी करण का विषय तीरादि और उसके फल शैत्यादि दोनों को अलग-अलग होना चाहिये । अथवा करण का विषय करण के फल से भिन्न होता है करण का विषय होने से, प्रत्यक्ष का करण चक्षुरादि इन्द्रिय का विषय नीलादि ज्ञान, जैसे उसके फल ज्ञातता से भिन्न होता है। यहां करण का तात्पर्य है फलायोगव्यवच्छिन्न कारण । अर्थात् उस कारण को करण कहेंगे जो फल के सम्बन्ध से रहित न हो । शब्द में वाच्यसम्बन्धादि ऐसा कारण है इसलिए उसे करण कहेंगे और प्रत्यक्षस्थल में इन्द्रियसंनिकर्षादि करण माने जायगें। विषयता को व्यापारानुबन्धिनी मानेंगे। अभीष्ट अनुमिति में पक्षतावच्छेदकावच्छेदन विवक्षित है अर्थात् जितने पक्ष हैं, सभी अनुमान के विषय हैं और सभी संदिग्धसाध्यवान् हैं इसलिए पक्षतावच्छेदक और हेतु दोनों में अभेद होने के कारण सिद्ध-साधनदोष के लिए कोई अवकाश नहीं रहेगा। परन्तु ऐसा भी अनुमान का स्वरूप नहीं माना जा सकता क्योंकि अनुमान के इस स्वरूप में फलत्व को यदि जन्यत्वरूप मानें तो सिद्धसाधनदोष होगा, क्योंकि फल में करणजन्यत्व पहले से ही सिद्ध है। अगर फलत्व को जन्यप्रतीतिविषयत्वरूप मानें तो बाध नामक हेत्वाभास दोष आयगा । जैसे “वह्निः अनुष्णः द्रव्यत्वात्" इस अनुमान में बाधदोष है क्योंकि “यस्य साध्याभावः प्रमाणान्तरेण निश्चितः स हेतुः न सधेतुः किन्त्वसद्धेतुः" द्रव्यत्वरूप हेतु का साध्य अनुष्णत्व है, उसका अभाव उष्णत्व