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द्वितीय उल्लासः
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श्रास्तूभयमतेऽपि प्रत्यक्षपदमिन्द्रियजन्यज्ञानपरमेव, संवित्तिश्च न्यायमते हेयोपादानबुद्धिरनुव्यवसायो वा, एवं च कारिकायां ज्ञानपदं भावव्युत्पन्नमेवेत्याहुः ।
मधुमतीकृतस्तु प्रत्यक्षमिन्द्रियपरमेव नीलादिविषयो व्यापारानुबन्धिविषयतया, प्रकटता
जन्य ज्ञानपरक ही है। इसीलिए 'प्रत्यक्ष का तात्पर्य दोनों के मत में समान है, अन्तर है तो फल के तात्पर्य को लेकर । भट्र के मत में ज्ञान का फल प्रकटता या ज्ञातता या व्यवसाय है। 'न्यायमत में संवित्ति है' संवित्ति का अर्थ अनुष्यवसाय है । वही ज्ञान का फल है । अनुव्यवसाय से हेय (त्याज्य) और उपादेय (ग्राह्य) बुद्धि उत्पन्न होती है । इस तरह कारिका में ज्ञानपद भावव्युत्पन्न “ज्ञप्ति नम्" ही है।
___ मधुमतीकार का कहना है कि 'प्रत्यक्ष पद यहाँ 'इन्द्रिय' बोधक ही है । "नीलो घटः" इत्यादि में नीलादि विषय इसलिए माना गया कि वह ६ प्रकार के (संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समदाय, समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यभाव) सन्निकर्ष व्यापार से सम्बद्ध है।
'प्रत्यक्ष' का अर्थ जब 'इन्द्रिय' माना गया तब प्रकटता उसका (प्रत्यक्षता) फल साक्षात् नहीं हो सकती; इसलिए ज्ञातता या प्रकटता को प्रत्यक्ष का फल इन्द्रियजन्य ज्ञानद्वारा अर्थात परम्परा-सम्बन्ध से ही मान सकते हैं।
संवित्ति तो व्यवसाय अर्थात ज्ञानात्मिका या ज्ञानस्वरूपा ही है इसलिए वह प्रत्यक्ष का साक्षात् फल हो सकती है। इस तरह कारिका में ज्ञान पद "ज्ञायते अनेन" इस प्रकार करणव्युत्पत्ति-सिद्ध ही है।
इस तरह विशिष्ट में लक्षणा का निराकरण किया गया है। प्रयोजनवती लक्षणा में प्रयोजन का बोध लक्षणा से नहीं हो सकता। इसलिए प्रयोजन के बोध के लिये व्यञ्जनावत्ति की आवश्यकता बतायी गयी। विशिष्ट में लक्षणा मानी नहीं जा सकती । क्योंकि विशिष्ट में लक्षणा मानने से लक्षणा का विषय (तट) और लक्षणा के फल (पावनत्वादि) दोनों का बोध एक साथ होगा । परन्तु यह युक्तिविरुद्ध है ज्ञान का विषय और फल ये दोनों अलगअलग होते हैं । उनको एक साथ मिलाया नहीं जा सकता। क्योंकि विषय और फल में कार्य-कारणभाव सम्बन्ध होता है । ज्ञान का विषय ज्ञान का कारण होता है और ज्ञान का फल ज्ञान का कार्य होता है । कार्य और कारण दोनों की उत्पत्ति एक काल में नहीं हो सकती। इस तरह लक्षणाजन्य ज्ञान के विषय तट और उसके फल को एकसाथ नहीं मिलाया जा सकता है किन्तु उनकी प्रतीति अलग-अलग ही माननी होगी। इसलिये विशिष्ट में लक्षणा नहीं हो सकने के कारण व्यञ्जना-व्यापार की नितान्त आवश्यकता है।
'ज्ञान का विषय और ज्ञान का फल दोनों अलग-अलग होते हैं। इस बात को समझाने के लिये ग्रन्थकार ने यहाँ मीमांसा और न्यायदर्शन की ज्ञानविषयक प्रक्रिया की चर्चा की है। पहले उसे समझना आवश्यक है। क्योंकि उसे समझे बिना यहाँ का रहस्य समझ में नहीं आ सकता। 'घट और पट आदि विषयों का जो ज्ञान होता है ; उसके विषय घट-पट आदि होते हैं और वे ज्ञान के प्रति कारण होते हैं। इसलिये घट-पट आदि विषयों की सत्ता ज्ञान से पहले रहती है, इस सिद्धान्त को सभी दार्थनिक मानते हैं। परन्तु ज्ञान का फल क्या होता है इस विषय में न्याय और मीमांसादर्शन के सिद्धान्तों में मतभेद है । वह इस प्रकार है -
न्यायदर्शन अनुव्यवसाय सिद्धान्त को मानता है। घट या नीलादि विषयों का ग्रहण तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से हो जाता है। परन्तु ज्ञान का ज्ञान कैसे होता है ; इस प्रश्न के समाधान के लिये नैयायिक 'अनुव्यवसाय' की कल्पना करते हैं । 'अनुव्यवसाय' का अर्थ है ज्ञान के लिये अनुगत ज्ञान या ज्ञान का ज्ञान । पहले प्रत्यक्ष से "अय