Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 276
________________ १२४ काव्यप्रकाश [सू० ३०] विशिष्टे लक्षणा नैवं - तत्साधारण्येन नियमो ममाभिधित्सितोऽपि तु यद्धर्मावच्छिन्नतयोपस्थितस्यैव यत्र शक्यसम्बन्धग्रहस्तत्र तद्धर्मप्रकारक एव शाब्दबोधः; यच्छब्दाभिधाजन्योपस्थितौ यत्र यः प्रकारतया भासते तच्छन्दवृत्तिलक्षणाजन्योपस्थितावपि तत्र स एवेति नियमो वा; अतो न व्यभिचार इत्यर्थः । न चाद्यनियमस्य काकेभ्य इत्यत्र व्यभिचारः, तत्रापि दध्युपघातकत्वेनोपस्थितेषु वक्त्रेकज्ञानविषयत्वरूपशक्यसम्बन्धाभ्युपगमात्, एवं कुन्ताः प्रविशन्तीत्यत्रापि कुन्तवत्त्वेनोपस्थिते कुन्तसंयोगग्रहः, कुन्तवत्त्वं च कुन्तनिरूपिताधिकरणताख्यः स्वरूपसम्बन्धविशेषो न तु संयोगः पदावच्छेदेन तत्संयोगेऽपि कुन्तवत्त्वाप्रत्ययादिति भावः । । दिखाया है, वह नियम साधारण्येन नहीं बन सकता । मेरे विचार में वह व्यभिचार सर्वत्र लागू नहीं होता। वह नियम साधारण नियम है, यह मैं नहीं कहना चाहता किन्तु मैं यह कहना चाहता हूँ कि यद्धर्मावच्छिन्नतया उपस्थित का जहाँ शक्यसम्बन्धग्रह होता है, वहाँ तद्धर्मप्रकारक ही शाब्दबोध होगा। जिस शब्द की अभिधाजन्य उपस्थिति में जहाँ जो प्रकार बनकर भासित होता है, उस शब्द में रहनेवाली लक्षणा से उत्पन्न उपस्थिति में भी वहां वही नियम होगा। इसीलिए किसी प्रकार का व्यभिचार नहीं होगा। "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" यहाँ प्रथम नियम का व्यभिचार नहीं मानना चाहिए । यद्यपि वहाँ काकत्वधर्मावच्छिन्नतया उपस्थित का ही शक्यसम्बन्धग्रह हुआ है और शाब्दबोध में काकत्व-धर्मप्रकारक का ही शाब्दबोध नहीं होता अपितु बिडालादि अन्य सकल दपुपघातक का भी प्रकारतया शाब्दबोध में प्रवेश होता है, इस तरह नियम में व्यभिचार की प्रतीति होती है तथापि वहाँ दध्युपघातकत्वेन उपस्थित सकल बिडालादि जन्तुओं में शक्यसम्बन्ध मान लिया गया है क्योंकि वक्ता के एक ज्ञान के वे सभी विषय हैं इसलिए वक्ता का एकज्ञानविषयत्वरूप शक्यसम्बन्ध उन सभी में माना जा सकता है। इसी तरह 'कुन्ताः प्रविशन्ति' यहाँ भी कुन्तवत्त्वेन उपस्थित (पुरुष) में कुन्तसयोगग्रह माना जायगा। 'कुन्तवत्त्व का तात्पर्य कुन्तनिरूपित अधिकरणता' है और कुन्तनिरूपित अधिकरणता नामक यही स्वरूप सम्बन्ध विशेष है, कुन्तसंयोग नहीं है क्योंकि कुन्तपदावच्छेदेन तत्संयोग होने पर भी अभीष्ट कुन्तवत्व की प्रतीति नहीं होगी। अर्थात् संयोगरूप सम्बन्ध लेने पर "कुन्तसंयुक्ताः पुरुषाः प्रविशन्ति" इस प्रकार का बोध होने पर 'कुन्तवन्तः प्रविशन्ति' यह अभीष्ट बोध नहीं होगा। किसी ने जो यह कहा कि "जितने के बिना अन्वय की अनुपपत्ति हो उतने की प्रतीति ही लक्षणा से द्वारा होती है उतना ही लक्षणाजन्य-ज्ञान का विषय होता है। शैत्यादि के बिना अन्वय में किसी प्रकार की अनपपत्ति नहीं आती; इसलिए शैत्यादि को लक्षणाबोध्य नहीं माना जा सकता, यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि निबिड (ठोस) द्रव्यमात्र के बिना अन्वयोपपत्ति होगी ही नहीं, घोष तो ठोस पृथिव्यादि आधार पर बस सकता है। इसलिए 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि स्थल में ठोस द्रव्यमात्र में लक्षणा के सम्भव होने पर तत्संसर्ग में ठोसपन के निश्चय के अभाव में लक्षणा नहीं होगी। इस तरह उपसंहार करते हुए लिखते हैं कि "विशिष्टे लक्षणा नंवम्"। 'विशिष्टे का यहां अर्थ है शैत्य-पावनात्वादि विशिष्ट ।

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