Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 274
________________ १२२ काव्यप्रकाश मानं, फलत्वस्य जन्यत्वरूपत्वे सिद्धसाधनात्, जन्यप्रतीतिविषयत्वरूपत्वे साध्यघटकान्योन्याभावस्य सामान्याभावत्वे साध्याप्रसिद्धः, विशेषाभावत्वे सिद्धसाधनापत्तेरन्तरतापत्तेश्चेति । अथ 'शत्यज्ञानं तीरज्ञानोत्पत्तिकालभिन्नकालोत्पत्तिकं तीरज्ञानफलत्वादित्यनुमानं यद् यत्फलं तत्तद्भिन्नकालोत्पत्तिकम् इत्यत्र ज्ञाततादिदृष्टान्त इति चेद्, न, सिद्धसाधनात्, तादृशभिन्नकालमात्रोत्पत्तिकत्वे साध्ये बाधात्, विशिष्टलक्षणावादिना शैत्यादिप्रतीतेस्तीरज्ञानफलत्वानभ्युपगमेन स्वरूपासिद्धेश्च, अधिकस्यार्थस्य प्रतिपत्तिश्च प्रयोजनमित्यस्य भिन्नप्रकारकप्रतिपत्त्यर्थमवाचकपदप्रयोगो न त -कालीन प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध है इसलिए यह हेतु बाधित है और यहां बाधदोष है। इसी तरह फल को यदि जन्यप्रतीतिविषयत्व मानें तो वहाँ "जन्यप्रतीतिविषयत्वात्" इस हेतु के कारण जिस करणफल को करणविषयभिन्न सिद्ध करना चाहेंगे उस करणफल में करणविषयत्व सिद्ध हो रहा है, अत: उन लक्षणावादियों के मत में जो विशिष्ट में लक्षणा मानते हैं इस तरह ‘बाध' आ जायगा । हेतु साध्याभावस्थल में व्याप्य है इसलिए “साध्याभावव्याप्यो हेतुविरुद्धः" इस लक्षण के अनुसार विरुद्धनामक हेत्वाभास भी है। विशिष्ट में लक्षणा माननेवालों के मत में करण का विषय और फल एक ही होने कारण करणविषय-भिन्नाभाव अर्थात करणविषय में करणफलत्व भी विद्यमान है। "करण स्वविषय से भिन्न फलवाला होता है क्योंकि वहां करणत्व है, जहाँ-जहाँ करणत्व है वहां-वहां विषय से फल भिन्न होता देखा गया है । जैसे ज्ञाततारूपी फल के करण प्रत्यक्ष का विषय नील-घटादि-ज्ञातता से पृथक् देखा गया है" ऐसा अनुमान भी नहीं हो सकता। इस अनुमान में भी फलत्व को यदि जन्यरूप मानें तो सिद्ध-साधन दोष होगा, फलत्व को यदि जन्यप्रतीतिविषयत्वरूप मानें, तो साध्यघटक अन्योन्याभाव को सामान्याभाव मानने पर साध्य की अप्रसिद्धि हो जायगी । तात्पर्य यह है कि "स्वविषयभिन्नफलकम्" में भिन्न का अर्थ है अन्योन्याभाव । उन अन्योन्याभावगत अभाव को यदि सामान्याभाव माने तो साध्य की अप्रसिद्धि हो जायगी। यदि साध्यघटक अभाव को विशेषाभाव मानें तो सिद्ध साधनदोष होगा और अर्थान्तर-सिद्धि-प्रयुक्त दोष भी होगा। यदि कहें कि 'शैत्यज्ञान, तीरज्ञानोत्पत्ति काल से भिन्न काल में उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है, क्योंकि वह (शैत्यज्ञान) तीरज्ञान का फल है ऐसा अनुमान मानेगे, जो जिसका फल होता है वह उससे भिन्न काल में उत्पन्न हुआ करता है जैसे ज्ञातता आदि; इस प्रकार दृष्टान्त की योजना भी हो जाएगी तो यह कथन भी ठीक नहीं होगा, इस कथन में भी सिद्ध साधन दोष है। पूर्वोक्त भिन्नकालोत्पत्ति को साध्य मानने में बाध दोष भी है । क्योंकि काव्य में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जहाँ फलज्ञान और कारणज्ञान एक साथ होता है जैसे "आलिङ्गन्ति समं देव ! ज्यां शराश्च पराश्च ते" यहाँ शत्रु के पृथ्वी पर गिरना (कार्य) फल और प्रत्यञ्चा से शर के सम्पर्करूप कारण दोनों का काल समान दिखाया गया है। इस तरह अनुभूति के द्वारा फलज्ञान और कारणज्ञान की समकालीनता सिद्ध होगी और अनुमान के द्वारा भिन्नकालीनता। इस तरह यह अनुमान "वह्निरनुष्णः द्रव्यत्वात्" के प्रत्यक्षबाधित अनुमान की तरह होगा और यहां का हेतु बाधित नामक हेत्वाभास से दुष्ट होगा। (फल) विशिष्ट तीर में लक्षणा माननेवाले शैत्यादि प्रतीति को तीरज्ञान के फल के रूप में नहीं मानते हैं और उन्हें शैत्यादि की प्रतीति तीरज्ञान के फल के रूप में भासित भी नहीं होती है, इसी स्थिति में स्वरूपासिद्धि नामक हेत्वाभास होगा। वृत्ति में जो यह लिखा हुआ है "गङ्गायास्तटे घोषः इत्यतोऽधिकस्यार्थस्य प्रतीतिश्च प्रयोजनम" अर्थात् गङ्गा के तट पर घोष है इससे अधिक पावनत्वादि विशिष्ट तीर अर्थ की प्रतीति (उस लक्षणा का) प्रयोजन

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