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द्वितीय उल्लासः
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[सू० २७] एवमप्यनवस्था स्याद् या मूलक्षयकारिणी ।
अपि तु लक्षणायाम्, अन्यथा तटशैत्ययोर्युगपदुपस्थितावयोग्यतया प्रथमं तीरे शैत्याधिकरणतानन्वयाद् योग्यतया घोषाधिकरणतान्वये तदुत्तरमयोग्यतायास्तदवस्थत्वेन जनितान्वयबोधतया निराकाङ्क्षत्वेन च लक्षणया तीरस्य शैत्येनान्वय-बोधाभावाद् व्यञ्जनायाश्चारोपितार्थबोधकत्वेनैव सिद्धेनं तज्जन्यबोsयोग्यताज्ञानं प्रतिबन्धकमिति भावः । 'समर्थ' इति पाठे घोषाधिकरणताया निबिडद्रव्येणैव साकाड़क्षात्वात् योग्यत्वाच्च शैत्यादीनां तदभावात् तत्प्रतिपादयितुं समर्थ इत्यर्थ इति व्याचक्षते । केचित्तु 'असमर्थ ' इति पाठे तीरमिवेति व्यतिरेके दृष्टान्तः, 'समर्थ' इति पाठे त्वन्वय एव, तथा च शैत्यादितीरयोर्युगपदुपस्थित्यापत्तिरित्यर्थ इत्याहुः ।
ननु तीरनिष्ठशैत्यपावनत्वे लक्ष्ये घोषनिष्ठं पावनत्वादि व्यङ्गयमस्त्वित्यत आहएवमपीति, 'मूलक्षयकारिणी' व्याचष्टे -
अर्थात् तीर में शैत्य न होने के कारण शैत्य तीर में है ऐसा नहीं माना जा सकता। ऐसी स्थिति में अन्वय की योग्यता होने के कारण घोषरूपी अधिकरण में उसका अन्वय हो जायगा अर्थात् शैत्य घोष में है ऐसा अन्वय होने पर भी तीर के साथ शैत्य के अन्वित होने की अयोग्यता पहले की तरह बनी हुई होने के कारण और घोष के साथ अन्वय हो जाने के कारण निराकाङ्क्ष हो जाने से लक्षणा के द्वारा तीर का शैत्य के साथ अन्वयबोध नहीं हो सकता । व्यञ्जना में तो आरोपित अर्थ के बोधन की शक्ति है, इसीलिए इष्टान्वय की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि व्यञ्जनाजन्य बोध में अन्वय की अयोग्यता का ज्ञान प्रतिबन्धक ( बाधक ) नहीं होता ।
यदि "समर्थ: " ऐसा पाठ है तो उसका तात्पर्य ऐसा मानना चाहिए कि 'घोष (आभीर ग्राम) का आधार तो कोई ठोस द्रव्य (पृथिवी आदि) ही सकता है इसीलिए घोष शब्द किसी निबिड (ठोस ) द्रव्य के साथ ही अधिकरणान्वय के लिए साकांक्ष रहेगा, ऐसा होना ही योग्य । इसलिए घोष शब्द, शेत्य के साथ अन्वित होने के लिए साकाङ्क्ष नहीं है, क्योंकि शैत्य कोई ऐसा ठोस द्रव्य नहीं है, जहाँ घोष बस सके; इसलिए घोष के साथ निराकाङ्क्ष शैत्य का उसके (घोष के साथ अन्वय नहीं हो सकता और तीर के साथ भी उसका अन्वय नहीं हो सकता; क्योंकि वह तीर का नहीं किन्तु प्रवाह का धर्म है। इस तरह वाक्य का अर्थ हुआ कि जैसे गङ्गा शब्द तीर को बताने में असमर्थ है, उस तरह प्रवाह को बताने में वह असमर्थ नहीं है किन्तु समर्थ है ।
कोई कहते हैं कि 'असमर्थ " ऐसा पाठ होने पर " तटमिव" इसको व्यतिरेक दृष्टान्त मानना चाहिए । इस प्रकार अर्थ होगा कि जैसे गङ्गा शब्द तट को बताने में स्खलद्गति है, असमर्थ है, इस तरह वह शैत्यादि प्रयोजन को बताने में स्खलद्गति या असमर्थ नहीं है ।
यदि "समर्थ" ऐसा पाठ मानें तो 'तटमिव' यह अन्वय- दृष्टान्त होगा । अर्थात् जैसे गङ्गा शब्द तट को बताने में समर्थ नहीं है वैसे ही प्रयोजन को भी बताने में समर्थ नहीं है क्योंकि दोनों (तट और शैत्य) की एकसाथ उपस्थिति हो जायगी, तो अन्वय में व्यवस्था नहीं हो पायगी ।
तथा प्रयोजन को लक्ष्य मानने में कोई और प्रयोजन मानना पड़ेगा, उसका यहाँ अभाव बताया गया है उसी के सम्बन्ध में कहते हैं कि "तीरनिष्ठ शीतत्व पावनत्वादि को लक्ष्य मानने पर घोषनिष्ठ पावनत्वादि को प्रयोजन माना जा सकता है, " इसका खण्डन करते हुए लिखते हैं कि " एवमप्यनवस्था स्याद् या मूलक्षयकारिणी" । इस प्रकार यदि