Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 265
________________ द्वितीय उल्लासः ११३ ANANANAAAAAAA न च शब्दः स्खलद्गतिरिति । नापि गङ्गाशब्दस्तटमिवेति । 'असमर्थ' इति पाठे मुख्यार्थबाधादिकमुपेक्ष्येति शेषः, 'समर्थ' इति पाठे मुख्यार्थबाधादिक[मपेक्ष्यैवेति] शेषः, तथा च मुख्यार्थबाधनरपेक्ष्येणार्थाबोधकत्वरूपं स्खलद्गतित्वं नेत्यर्थः । लाक्षणिकबोधे लक्षणाया अन्वयव्यभिचारित्वं वा स्खलद्गतित्वं नेत्युक्तपाठाभ्यामुक्तरीत्या मूलव्याख्येति मम प्रतिभाति । प्रदीपकृतस्तु न केवल मुख्यार्थबाधादीनां शैत्यादिबोधार्थमभावमात्र किन्तु तेषामपेक्षाऽपि तत्र नेत्याद। न च शब्द: स्खलदगतिरिति मख्यार्थबाधादित्रयमपेक्ष्य बोधकत्वं स्खलद्गतित्वं, एवं च वृत्ता'वसमर्थ' इति पाठे बाधादिकमुपेक्ष्येति शेषः, 'समर्थ' इति पाठे बाधादित्रयमपेक्ष्येति शेष इति वदन्ति । अन्ये तु स्खलन्ती मुख्यार्थबाधाद्यनुसन्धानेन विलम्बिता गतिर्बोधकता यस्य न तथेत्यर्थः, यदि उक्त ग्रन्थ को तर्क-परक न मानें तो 'नाप्यत्र बाध:" यह उल्लेख पुनरुक्त हो जायगा। क्योंकि 'बाधाभाव' का उल्लेख तो "तद्वत् यदि तटेऽपि सबाधः स्यात्" इसी बाध से हो गया है । यह समझना चहिये। 'नच शब्द: स्खलदगतिः' की व्याख्या वृत्ति में "नापि गङ्गाशब्दस्तटभिव प्रयोजनं प्रतिपादयितुमसमर्थः" इन शब्दों में की गई है। यहाँ यदि "असमर्थः" यह पाठ हो जैसा कि ऊपर लिखा गया है तो "असमर्थः" के पहले मुख्यार्थबाधादिकमुपेक्ष्य' यह जोड़ना चाहिए जिससे कि मुख्यार्थ-बाधादि की उपेक्षा करके गङ्गा शब्द लक्षणा के द्वारा प्रयोजन को बताने में असमर्थ है ऐसा अर्थ हो । यदि वहाँ "समर्थः" ऐसा पाठ मानें तो उसके आगे "मुख्यार्थबाधादिकमपेक्ष्यवेति" जोड़ना चाहिए। इस तरह मुख्यार्थबाघ की बिना अपेक्षा किये अर्थाबोधकत्वरूप स्खलद्गतित्व शब्द में (गङ्गा शब्द में) नहीं है ऐसा तात्पर्य मानना चाहिये । मुख्यार्थ-बाध की अपेक्षा बिना किये जो शब्द अर्थ का बोध नहीं करा सकेगा उसी में स्खलद्गतित्व माना जायगा, गङ्गा शब्द तो मुख्यार्थवाध की अपेक्षा के बिना ही शीतत्व-पावनत्व को बताने की क्षमता रखता है। अतः यह शब्द शीतत्व-पावनत्वातिशयरूप प्रयोजन बताने में स्खलद्गति नहीं है। हां, भले ही तट अर्थ बताने में स्खलद्गति हो। मेरे मत में लाक्षणिक बोध में लक्षणा का अन्वय व्यभिचारित्वरूप स्खलद्गतित्व नहीं है, इस तरह उक्त पाठों से पूर्वोक्त प्रकार से मूल की व्याख्या की गयी है। प्रदीपकार का कहना है कि 'लक्षणा के द्वारा शैत्यादि के बोध के लिए अपेक्षित मुख्यार्थबाधादि का वहाँ न केवल अभाव है किन्तु उनकी अपेक्षा भी नहीं है क्योंकि गङ्गा शब्द शीतत्व-पावनत्वातिशय का बोध मुख्यार्थबाधादि की अपेक्षा के बिना ही करा देता है। "न च शब्दः स्खलद्गतिः” यहाँ स्खलद्गति का तात्पर्य है कि जो शब्द मुख्यार्थ-बाधादि तीन (लक्षणा हेतुओं) की अपेक्षा करके अर्थबोधक होता है वह स्खलद्गति होता है । गङ्गा शब्द तटार्थ बताने में स्खलद्गति भले ही हो; परन्तु वह शीतत्वादि अर्थ बताने में स्खलद्गति नहीं है क्योंकि शीतत्वादि अर्थ को वह बिना मुख्यार्थ-बाधादि की अपेक्षा किये वता देता है। इस तरह जब वृत्ति में 'असमर्थ' यह पाठ हो तब बाधादिकमुपेक्ष्य यह शेष मानना चाहिये अर्थात् पहले जोड़ना चाहिए और यदि 'समर्थ' पाठ हो तो "बाधादित्रयमपेक्ष्य" यह जोड़ना चाहिये । अन्य विद्वान इन पंक्तियों की व्याख्या और रूप में करते हैं :-"स्खलन्ती मुख्यार्थ-बाधाद्यनुसन्धानेन विलम्बिता गतिः" अर्थबोधकता में विलम्ब हो गया है, उसे स्खलद्गति कहते हैं किन्तु (गङ्गा) शब्द वंसा नहीं है।

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