Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 226
________________ ७४ काव्यप्रकाशः wwwmammmmmmmmmaan पदवाच्यत्वस्यापि तत्र सत्त्वात्, अत एव शुद्धत्व-व्यवहारमात्रविषयत्वं साध्यमिति प्रत्युक्तं लक्षणोपादानत्वव्यवहारमात्रविषयत्वस्यापि तत्र सत्त्वात् । न च वृत्तावेवकारानुपादानाच्छुद्धपदवाच्यत्वमात्र साध्यमिति वाच्यं, सारोपादिसाधारणशुद्धपदवाच्यत्वसाधने विवक्षितार्थासिद्धेः, गोण्यामेतप्रभेदद्वयाभावस्य सिषाधयिषितत्वात् । न च गौणीभिन्नत्वेन व्यवहर्तव्यत्वं, शुद्वपदार्थत्वम्, एवकारस्याविवक्षितत्वेन वृत्तौ तदनुपादानं चेति वाच्यम्, सारोपसाध्यवसानयोरपि साध्यसत्त्वेन तत्साधारण्यसाधने विवक्षितार्थासिद्धेरिति । अत्र ब्रमः-गौणीपदवाच्यभिन्नत्वव्याप्यलक्षणाविभाजकोपाधिमत्त्वरूपं शुद्धत्वमत्र साध्यम् । न च शुद्धसारोपसाध्यवसानयोः सादृश्यसम्बन्धेनाप्रवृत्तत्वरूपोपचारामिश्रितत्वस्य हेतोः सत्त्वेन साध्यस्य में जो लक्षणा है वह सादृश्य-सम्बन्ध से भिन्नार्थक है, उपचार से अमिश्रित होने के कारण । जो ऐसा नहीं है; वह ऐसा नहीं है जैसे गौणी-लक्षणा के 'अग्निर्माणवकः' इत्यादि उदाहरणों में। ऐसा अनुमान इसलिए उचित नहीं होगा कि इसमें उपचारामिश्रितत्वरूप हेतु और सादृश्य-सम्बन्ध-भिन्नार्थकत्वरूप साध्य दोनों एक जैसे ही हैं। . ऐसा भी नहीं मान सकते हैं कि-शुद्ध पदवाच्यत्व ही वहाँ शुद्धपदार्थ है अर्थात् 'कुन्ताः प्रविशन्ति" । इत्यादि लक्षणा 'शुद्धा' लक्षणा कही जाती है । 'शुद्धा' शब्द का प्रयोग होना ही प्रमाणित करता है कि इस लक्षणा में शुद्धात्व है । ऐसा कहना इसलिए ठीक नहीं होगा कि “शुद्धव सा द्विधा" यहाँ ग्रन्थकारने 'एव' शब्द का प्रयोग किया है। 'एव' शब्द अपने स्वभाव के कारण "इतरव्यवच्छेद" करता है। जैसे 'राम एव गच्छति' यहाँ 'एव' शब्द राम से इतर (अन्य) का व्यवच्छेद करता है अर्थात बताता है कि राम से भिन्न व्यक्ति नहीं जा रहा है किन्तु राम ही जा रहा है । इस तरह 'शुद्धव' में लगा हुआ 'एव' भी शुद्ध-पदान्यवाच्यत्व का निषेध करेगा। “एव" शब्द से यह अर्थ होगा कि "कुन्ताः प्रवशन्ति" में जो लक्षणा है; वह शुद्ध पद से अन्य किसी पद से वाच्य नहीं है । परन्तु ऐसा मानना अयुक्त है-अयोग्य है-गलत है क्योंकि 'कुन्ताः प्रवशन्ति' में जो लक्षणा है वह शुद्ध पद से अन्य पद उपादान पद से भी वाच्य है। इसलिए 'शुद्धा' लक्षणा में श्रद्धा पदार्थ शुद्धपद वाच्यत्व नहीं हो सकता । अतएव इस लक्षणा को केवल शुद्ध शब्द से अभिहित नहीं किया गया है। क्योंकि यह लक्षणा शुद्धत्व व्यवहार मात्र का विषय नहीं है। वृत्ति में 'एव' शब्द का उल्लेख नहीं है। इसलिए शुद्ध पदवाच्यत्वमात्र साध्य है, न कि शुद्धपदान्यपदवाच्यत्वाभाव । अर्थात् 'एव' शब्द का प्रयोग वृत्ति में नहीं है इसलिए "कुन्ताः प्रवशन्ति" इत्यादि स्थल की लक्षणा शुद्ध पदवाच्य है यही हमें सिद्ध करना है । हम यह सिद्ध नहीं करेंगे कि पूर्वोक्त उदाहरण में जो लक्षणा है वह शुद्ध पद से अन्य किसी पद का वाच्य नहीं है। इसलिए यदि यहां की लक्षणा शुद्ध पद से अतिरिक्त पद-उपादान पद-का भी वाच्य है, तो रहे। इस प्रकार शुद्ध का अर्थ हुआ शुद्धपदवाच्य, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि सारोपादि पदवाच्यत्व के साथ-साथ यदि शुद्ध पद वाच्यत्व की सिद्धि करें तो इस साधन में सारोपादि साधारण शुद्धवाच्यत्व की सिद्धि होगी । ऐसी स्थिति में जो अर्थ विवक्षित है; वह असिद्ध ही रह जायगा। गौणी में सारोपा और साध्यवसाना इन दोनों भेदों का अभाव सिद्ध करना ही अभीष्ट है। तात्पर्य यह है कि शुद्ध पदवाच्यत्व का उदाहरणस्थल ऐसा होना चाहिए जो केवल शुद्ध पद का वाच्य हो । यदि शुद्ध पदवाच्यत्व के उदाहरण में उपादान पद का वाच्यत्व भी हो, और सारोपा पद का वाच्यत्व भी हो तो उसे शुद्ध कैसे माना जाय ? गौणी से भिन्न रूप में व्यवहार की योग्यता रखना ही शुद्धा लक्षणा की शुद्धता है । अर्थात् जिस लक्षणा को लोग गौणी लक्षणा नहीं मानते हों उसे शुद्धा कहते हैं (गौणी से भिन्न लक्षणा ही शुद्धा है) मूल कारिका में (कथित) 'एव' शब्द की विवक्षा नहीं है इसीलिए वृत्ति में 'एव' शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है । यह कथन

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