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द्वितीय उल्लास:
ननु विशेषणविभक्तेरभेदार्थकत्वेन तादू प्यस्य शक्यत्वान्न व्यङ्ग्यत्वम्, अथ केनापि पाणिन्यादिनाऽभेदे विशेषणविभक्तौ शक्तेरनुपदर्शनान्नाभेदो विशेषणविभक्तरर्थः संसर्गमर्यादयव तद्भानात्, अन्यथा वाक्यसमानार्थकत्वसिद्धये नीलोत्पलमित्यादिकर्मधारयेऽपि लक्षणापत्तेरिति, किन्तु नीलोत्पलमित्युक्ते नीलस्योत्पलं नीलं वा उत्पलमिति भेदाभेदरूपसंसर्गयोस्तात्पर्यसन्देहो मा भूदिति नीलमित्यत्र द्वितीयाविशेषणविभक्तिरभेदतात्पर्यस्फोरिकेति युक्तमुक्तं ताद्र प्यप्रतीतिः प्रयोजनमिति चेद् ? मैवम् । तथापि ताद्र प्यस्य वाक्यार्थत्वेन व्यङ्गयत्वायोगादिति ।
अत्राहः-विशेषणविभक्तेरभेदार्थकत्वे सम्बन्धितावच्छेदकत्वेन तदभाने च संसर्गमर्यादया सारोपायामभेदस्योपस्थितावपि स्वातन्त्र्येण साध्यवसानायां च पदान्तराभावेन सम्बन्धितावच्छेदकत्वेन
द्वारा अशित होने के कारण पूर्वोक्त स्थलों में ताप्य की प्रतीति शक्यार्थ के रूप में नहीं हो सकती तो इसका समाधान है कि संसर्ग-मर्यादा से ही अभेद अर्थ आ जाता है। वाक्य में आये हुए पदों के बीच आकांक्षादि के कारण सम्बन्ध (अभेद) स्वयं भासित हो जाता है। अन्यथा (यदि अभेद अर्थ विशेषण विभक्ति का ही माने, संसर्ग मर्यादा से उसका भान न मानें तो) "नीलोत्पलम्" कर्मधारय के इस समस्त पद में जहाँ कि विशेषण में विभक्ति नहीं है उसे "नीलमुत्पलम्" इस वाक्य का समानार्थक सिद्ध करने के लिए लक्षणा माननी होगी। इसलिए मानना चाहिए कि अभेद अर्थ विशेषण विभक्ति का नहीं है; वह तो संसर्ग मर्यादा से ही आता है।
इस पर प्रश्न यह उठता है कि यदि अंभेद अर्थ संसर्ग-मर्यादा से ही आता है तो "नीलम् उत्पलम्" यहाँ 'नीलम्' में जो विभक्ति है उसका प्रयोग नहीं होना चाहिए क्योंकि "उक्तार्थानामप्रयोग:" यह सिद्धान्त है।
परन्तु इसका उत्तर यह है कि यदि 'नीलम्' में विभक्ति नहीं लाते तो 'नीलोत्पलम् आनय' यह कहने पर "नीलस्य .. उत्पलम्" है या "नीलम् उत्पलम्" है इस प्रकार का सन्देह उत्पन्न होता अर्थात् यहाँ नील-उत्पलम् में भेद-सम्बन्ध
है या अभेद-सम्बन्ध, इस प्रकार का सन्देह होता; इसलिए पूर्वोक्त प्रकार से संसर्ग-ग्रहण में तात्पर्य का सन्देह न हो इसलिए विशेषण में विशेष्य के अतिरिक्त विभक्ति अभेद-तात्पर्य को स्फुट करने के लिए लगायी गयी है। इस तरह स्पष्ट है कि ताद्र प्य शक्यार्थ नहीं है परन्तु वह विशेषण विभक्ति का द्योत्य अर्थ है। इस तरह ताद्र प्यप्रतीति प्रयोजन है यह कथन ठीक ही है ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि पूर्वोक्त सिद्धान्त के अनुसार भी ताद्रूप्य वाक्यार्थ ही ठहरता है; उसे 'व्यङ्गय' कहना गलत ही है।
इसके सम्बन्ध में यशोधरोपाध्याय ने कहा है कि
"विशेषण विभक्ति को अभेदार्थक मानने पर और सम्बन्धितावच्छेदकरूप में उसका भान नहीं होने पर संसर्गमर्यादा से सरोपा में अभेद की उपस्थिति होने पर भी स्वातन्त्र्येण साध्यवसाना में पदान्तर के न होने के कारण सम्बन्धितावच्छेदकरूप से या संसर्गरूप से या स्वतन्त्ररूप से अथवा सब तरह से उसकी उपस्थिति के लिए व्यञ्जना माननी चाहिए।।
माना कि विशेषण विभक्ति का अर्थ अभेद होता है परन्तु जब तक अभेद का सम्बन्धितावच्छेदकरूप में भान न होगा तब तक "गौर्वाहीकः" में अभेद-सम्बन्ध से अन्वय नहीं होगा। इसलिए अभेद की उपस्थिति संसर्गमर्यादा से ही माननी होगी। स्वातन्त्र्येण अभेद की उपस्थिति सारोपा में अभीष्ट है। इसके लिए व्यञ्जना से ही उसकी उपस्थिति माननी होगी। साध्यवसाना में तो "गोर्जल्पति" में दूसरा समानाधिकरण पद है नहीं इसलिए कोई पद किसी का विशेषण नहीं हैं। अतः विशेषण विभक्ति के अभाव में अभेद की उपस्थिति वहां न विभक्ति द्वारा सम्भव है और न ससर्ग-मर्यादा से सम्भव है । इसलिए साध्यवसाना लक्षणा में सम्बन्धिता