________________
द्वितीय उल्लासः
[सू १९] तच्च गूढमगूढं वा - तच्चेति व्यङ्ग्यम् ।
तथा च व्यङ्गयोपस्थितिप्रयोजकलक्षणात्वं 'तल्लक्षणमिति भावः। ननु प्रयोजनवत्यां कथं व्यङ्गयनियम ? इत्यत आह-'प्रयोजनं ही ति, तथा च प्रयोजनव्यङ्गययोरेकार्थत्वात् तत्त्वमित्यर्थः । वयं तु-ननु व्यङ्गयोपस्थितिजनकत्वमेव कुतो न प्रयोजनवतीलक्षणमित्यत आह
प्रयोजन होति, न लक्षणागम्यमित्येवकारार्थः, तथा सति जनकत्वगर्भलक्षणेऽसम्भव इति भाव व्यङ्गय नियतवृत्तिता होने से व्यङ्गय नियम अक्षुण्ण है । इस प्रकार से पूर्वोक्त ग्रन्थ की व्याख्या अन्य टीकाकारों ने की है।
मैं तो इस सन्दर्भ की व्याख्या इस प्रकार करता हूं "व्यङ्गयोपस्थितिजनकत्वम्" व्यङ्गय की उपस्थिति कराना ही प्रयोजनवती का लक्षण क्यों नहीं किया गया? इसलिए कहते हैं-'प्रयोजनं हि' इत्यादि । अर्थात् प्रयोजन व्यञ्जना-व्यापारगम्य है; वह लक्षणागम्य नहीं है। इस रूप में प्रयोजन को लक्षणा-गम्य होने के निषेध के लिए वत्ति में 'एव' शब्द का प्रयोग किया गया है। इस तरह प्रयोजनवती लक्षणा का यदि पूर्वोक्त "व्यङ्गयोपस्थितिजनकत्वम्" यह जनकत्व-घटित लक्षण करें तो असम्भव दोष होगा। क्योंकि लक्षणा से वहां व्यङ्गच की उपस्थिति नहीं होती है। इसलिए लक्षणा को व्यङ्गयोपस्थितिजनक नहीं कहा जा सकता।
. व्यङ्गय के गूढ और अगूढ होने के कारण पूर्वोक्त ६ भेदों के दुगुने हो जाने के कारण प्रयोजनवती लक्षणा १२ प्रकार की होती है जैसा कि सूत्र १८ 'तच्च गूढमगूढं वा" में बताया गया है। अर्थ है कि वह व्यङ्गय (प्रयोजन) कहीं गूढ (सहृदयमात्रगम्य) और कहीं अगूढ (स्पष्ट, अत एव सर्वजनबोध्य) होता है। कारिका में तत् सर्वनाम पूर्वप्रयुक्त व्यङ्गय का परामर्थक है यह बताते हुए वृत्ति में लिखते हैं-"तच्चेति व्यङ्गयम्"।
____ कारिका में 'वा' शब्द चकारार्थक है। चकार का जो अर्थ होता है वही अर्थ यहाँ 'वा' शब्द का है। इसीलिए ऊपर हिन्दी अर्थ देते समय उसका 'और' अर्थ किया गया है। सहृदयमात्र-संवेद्य को गढ कहते हैं और अगूढ व्यङ्गय वह है जो सहृदय तथा असहृदय दोनों से गम्य हो । 'सहृदय' शब्द में हृदय का अर्थ है प्रतिभा। इस तरह सहृदय वह है जो प्रतिभावान हो। 'हृदयेन प्रतिभया सहितः सहृदयः' इस व्युत्पत्ति से वही अर्थ प्रकट होता है।
यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि गूढ पद से मध्यम काव्य के चतुर्थ भेद (सू०६६) का, जिसे पञ्चम उल्लास (सू०६६) में अस्फुट (गूढव्यङ्गय) नाम दिया गया है और अगूढ पद से मध्यम काव्य के परिगणित आठ भेदों में प्रथम भेद का; जिसे कि सू०६६ में अगूढ ही नाम दिया गया है, संग्रह होने पर भी उत्तम काव्य के भेदों का संग्रह इन दोनों भेदों में नहीं हो सकेगा। इस तरह उत्तम-काव्य के सारे भेदों को असहृदयवेद्य मानना पड़ेगा, क्योंकि उत्तम काव्य के सारे प्रभेद गूढ नहीं कहलाने के कारण सहृदयमात्रवेद्य नहीं कहला सकते और अगूढ के अन्तर्गत नहीं आने के कारण उन्हें सहृदयासहृदय उभयवेद्य भी नहीं कह सकते इस तरह परिशेषात् उन्हें असहृदयमात्रवेद्य मानना पड़ेगा। इस तरह उत्तम काव्य को असहृदयवेद्यत्व की कोटि में आना अनुभव. विरुद्ध और शास्त्रविरुद्ध होने के कारण बड़ा दोष होगा? इस दोष को इष्टापत्ति मानकर स्वीकार नहीं किया जा सकता ; क्योंकि "वक्तृबोद्धव्यकाकूनाम् (सू० ३७) के द्वारा उत्तम काव्य के प्रभेदों में प्रतीत होने वाले व्यङ्गय को १. प्रयोजनवती