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काव्यप्रकाशः
मुकुलितत्वं पुष्पधर्मः स्तने बाधित इति काठिन्यं लक्ष्यते, (निबिडावयवत्वं सम्बन्धः ) क्ष ( ? ) समर्दन जनितमार्दवानधिकरणत्वं वा व्यङ्गयं शृङ्गारेण हृदयस्य द्रवीभावो व्यङ्गयः मुकुलस्य जलरूपद्रवद्रव्याधिकरणत्वादिति वयम् । उद्धुरत्वं चेतनधर्मः स च जघने बाधित इति सातिशयत्वं लक्ष्यं, कार्यकारणभावः सम्बन्धः, रमणीयत्वं व्यङ्गयम् । श्रंसबन्धत्वानुरोधात् तद्योग्यता लक्ष्या, यौवनयुवराजपराजित कामकारागारत्वं तरुणिम महीपतिमृगयोपलब्धकामुकमृगवागुरात्वं वा व्यङ्गयमिति वयम् ।
मोदनं चेतनधर्मः स च तरुणिमोद्गमे बाधित इति अनियन्त्रितत्वं लक्ष्यं, कार्यकारणभावः सम्बन्धः, युवजनमनोमादकत्वं व्यङ्ग्यं वदनस्येन्दुना निरूपणात् तरुणिमन्युद्गमोपादानात् तस्य स्मितादिरत्नाकरत्वं व्यङ्गयमिति वयं विलोकयामः ।
सिखायी गयी रूठने की सारी मौन धारणादि चेष्टाएँ भूल गयी, यही यहाँ 'अपास्त संस्थामति' पदसे व्यङ्गय हुआ है।
"उरो मुकुलितस्तनम्" में मुकुलित होना फूल का धर्म है या कलियों का धर्म है । पुष्पधर्मं या कलिका का धर्म स्तन में अन्वित नहीं हो सकता। इसलिए बाधित होने से काठिन्य अर्थ को लक्षणा के द्वारा बताता है । 'निबिडावयवत्व' यहाँ सम्बन्ध है । ( इससे उद्भिन्नत्व लक्ष्य और आलिङ्गनयोग्यत्व भी व्यङ्गय हो सकता है ।) अथवा स्तन में मर्दन (मलने) के कारण मार्दव आना चाहिए, परन्तु मर्दन के आधारभूत स्तनों में मृदुता नहीं आयी, यह यहाँ व्यङ्गय है ।
मेरे विचार में "उरो मुकुलितस्तनम् " इस पद से हृदय का द्रवीभाव व्यङ्गय है । मुकुल का आधार सदैव जलरूप द्रव ( बहने वाला) द्रव्य ही होता है इसलिए मुकुलित स्तन के आधार " उरस्" (हृदय) का द्रवीभाव यङ्गय होता है ।
उद्धुरत्व (उत्कृष्ट धुरात्व) भी चेतन का धर्म है । वह जघन में अन्वित होने में बाधित है । इसलिए उससे सातिशयत्व लक्ष्य है, सम्बन्ध है कार्यकारणभाव और व्यङ्गय है रमणीयत्व ।
मेरे विचार के अनुसार यहाँ अंसबन्ध (रतिबन्ध विशेष या अवयवों के दृढबन्ध) के अनुरोध से रतिबन्ध या ढबन्ध की योग्यता यहाँ लक्ष्यार्थ है । इसलिए यहाँ यौवन-युवराज पराजित काम-कारागारत्व या 'तरुणिम महीपति- मृगयोपलब्ध-कामुकमृग वागुरात्व' व्यङ्गय है । अर्थात् यह जघन यौवनरूपी युवराज का वह कारागार है जिसमें पराजित कामरूपी कैदी बन्द है । अथवा यह जघन वह वागुरा ( मृग को फंसाने का जाल ) है जिसमें तारुण्यरूप राजा शिकार के समय उपलब्ध कामुकरूपी मृगों को फँसाया करता है ।
"तरुणिमोद्गमो मोदते" में मोदन या आनन्द चेतन का धर्म है, वह अचेतन तारुण्य के उद्गम में अन्वय नहीं प्राप्त कर सकता है। इसलिए बाधित होकर अनियन्त्रितत्वरूप लक्ष्यार्थं को बताता है। असीम तारुण्य ( यौवन का उद्दाम उत्कर्ष ) लक्ष्यार्थं है । वाच्य और लक्ष्य के बीच कार्य कारणभाव सम्बन्ध है । युवजन के मन को मस्त बनाने की क्षमता यहाँ व्यङ्गय है ।
मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ 'तारुण्य को स्मितादि का रत्नाकर (समुद्र) बताना अभीष्ट है' और वही व्यङ्गय है । क्योंकि "बतेन्दुवदनातनी" यहाँ मुख को चन्द्र बताया गया है। इसलिए चन्द्र का उद्गम स्थान जैसे समुद्र या रत्नाकर माना गया है उसी तरह तारुण्य को यहाँ स्मितादिरत्नों का आकर माना गया है ।
१. अत्र कश्चन पाठः खण्डितः ।