Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 258
________________ . काव्यप्रकाशः [सू० २१] तद्भलाक्षणिकः - शब्द इति सम्बध्यते । तद्भस्तदाश्रयः । [सू० २२] तत्र व्यापारो व्यञ्जनात्मकः । शक्यसम्बन्धस्य लक्ष्यवृत्तितया तत्रातिव्याप्तेराह - शब्द इतीति सम्बध्यते। 'स्याद्वाचको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्त्रिधे'त्यतोऽनुषज्यत इत्यर्थः । लक्षणाजनकत्वं शब्दे सम्बन्धस्य लक्षणात्वपक्षे बाधितमत आह तवाश्रय इति । अत्र च यः शब्दो यदर्थविषयलक्षणाश्रयः स तल्लाक्षणिक इति प्रत्येकमेव लक्षणम्, अन्यथा वाचकादावतिव्याप्तेरिति बोध्यम्, व्यञ्जकशब्दलक्षणाय लक्षणाया अनन्तरोक्तत्वात् तन्मूलामेवादौ व्यञ्जनां व्यवस्थापयति तत्रेति । तत्र लाक्षणिकशब्दे व्यापारः प्रयोजनप्रतिपत्त्यनुकूल: अथवा तत्र प्रयोजने व्यापारो इस तरह कारिका में निर्दिष्ट 'एषा' इस पद से 'लक्षणा' सामान्य का ग्रहण होगा, 'लक्षणा-विशेष का .. -प्रयोजनवती का नहीं, यह इस वृत्ति का तात्पर्य निकलता है। इसलिए सूत्र २० में वर्णित भेद लक्षणासामान्य के मानने चाहिए, लक्षणाविशेष के नहीं। शक्यसम्बन्ध के लक्ष्यवर्ती होने के कारण लक्ष्य अर्थ में लक्षणा के लक्षण-'शक्यसम्बन्धो लक्षणा'-के . घटित होने से लक्षणा के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष की सम्भावना का निराकरण करने के विचार से लिखते हैं'शब्द इति सम्बद्धयते' । अर्थात् “तद्भूलाक्षणिकः" (सू० २१,)में 'तत्' पद से शब्द लिया जाता है । इस तरह अर्थ होगा कि उस लक्षणा का आश्रयभूत शब्द लाक्षणिक शब्द कहलाता है। तात्पर्य यह है कि सू० २१ में “स्याद् वाचको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्त्रिधा" इस द्वितीय उल्लास (इसी उल्लास) की प्रथम कारिका से 'शब्द' पद की अनुवृत्ति 'मण्डूकप्लुतिन्याय' से आती है। "शक्यसम्बन्धो लक्षणा" माननेवालों के मत के अनुसार सम्बन्ध ही लक्षणा है। इस पक्ष में शब्द लक्षणाजनक नहीं हो सकता, क्योंकि वह बाधित है इसलिए वृत्ति में "तद्भः" की व्याख्या करते हैं-'तदाश्रयः।' . यहाँ (यह समझना चाहिए कि) जो शब्द यदर्थविषयक लक्षणा का आश्रय है वह उसके प्रति लाक्षणिक है, इस तरह प्रत्येक को लक्षण मानना चाहिए । अन्यथा वाचकादि में अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। अब व्यञ्जक शब्द का लक्षण करना है इसके लिये आवश्यक है कि व्यञ्जकशब्द के व्यापार व्यञ्जना को स्थिर किया जाय। इसलिए यहाँ लक्षणामूला व्यञ्जना की ही स्थापना पहले करते हैं। क्योंकि लक्षणामूलक व्यंग्य की चर्चा अभी-अभी की गयी है। इसलिए "उपस्थितं परित्यज्य अनुपस्थितकल्पने मानाभावः" इस न्याय से या प्रकरणबल से; लक्षणामूला व्यञ्जना को ही सर्वप्रथम सिद्ध करते हैं :-"तत्र व्यापारो व्यञ्जनात्मकः"। यहाँ तत्र का अर्थ है लाक्षणिक व्यापार में । अर्थात् लाक्षणिक शब्द में प्रयोजन की प्रतीति करानेवाला व्यापार व्यञ्जना है, यह कारिका का अर्थ है। अथवा 'तत्र' का अर्थ 'प्रयोजने' भी हो सकता है, इस तरह अर्थ होगा कि लाक्षणिक शब्दनिष्ठ

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