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द्वितीय उल्लास:
तथाहि -
__] सू० २४] नामिधा समयाभावात् -
वच्छेदकानुपस्थितावपि 'पानकरसन्यायेन' व्यङ्ग्यबोधकत्वाच्च न काऽप्यनुपपत्तिः । किञ्च व्याप्त्यादिप्रतिसन्धानस्यानियतत्वाद् शैत्यादिबोधस्य च नियतत्वान्नानुमित्या व्यञ्जनान्यथासिद्धिरिति भावः ।
क्रियापदार्थमाह-प्रन्यो व्यापार इति । ननु तत्राभिधादिरेव कल्पितो व्यापारोऽस्तु किं व्यञ्जनयेत्यत आहनाभिधेति। हेतुसाध्ययोः सामानाधिकरण्याभावादभेदाच्चानुमित्यनुपपत्तिरतो व्याचष्टे
सुत, तक कि "अत्यन्तासत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोति च" जो वस्तु या अर्थ या पदार्थ संसार में है ही नहीं, जैसे बन्ध्या का आकाशपुष्प, कूर्मक्षीर तथा शशशृग उनका भी बोध वन्ध्यासुतादि शब्द कराता है । इसलिए व्यञ्जना से शीतत्वादि अतिशय का बोध हो जाता है। समस्त व्यङ्गयों की एक साथ उपस्थिति न होने पर भी, व्यङ्ग्यतावच्छेदक की उपस्थिति के अभाव में भी व्यञ्जना समस्त व्यङ्गय का बोध पानकरसन्याय से करा देती है। इसलिए व्यञ्जना मानने पर किसी प्रकार का दोष शेष नहीं रह जाता।
इलायची, काली मिर्च, शक्कर, आम आदि वस्तुओं को मिलाकर तैयार किया गया शर्बत जैसे मिलाजुला आस्वाद देता है उसी तरह व्यञ्जना भी। यही पानकरसन्याय में यहाँ सिद्ध किया गया है।
सब से बड़ी बात यह कि व्याप्ति आदि के प्रतिसन्धान की एक सीमा नियत की हुई है। जैसे जिस देश में व्याप्य रहे उसी देश में व्यापक का अनुमान किया जाय और व्याप्य और व्यापक यदि समान काल में है तभी अनुमान होता है।
शैत्यादि बोध (मर्यादित) नहीं हैं। इसलिए अनुमिति से व्यञ्जना का कार्य गतार्थ नहीं हो सकता। अनुमान से व्यञ्जना की अन्यथासिद्धि नहीं हो सकती।
"न चात्र व्यञ्जनाहतेऽन्यो व्यापारः" शब्दकगम्य फल के बोधन में शब्द का व्यञ्जना से अतिरिक्त और कोई व्यापार नहीं होता है । "अन्यो व्यापार इति"।
यदि यह कहें कि प्रयोजन (फल)की प्रतीति के लिए स्वीकृत (कल्पित) अभिधादि व्यापारों में से ही किसी व्यापार के मानने से काम चल आयगा तो यह गलत होगा, यह दिखाने के लिए सू० २४ में लिखते हैं-"नाभिधा समयाभावात्"। संकेतग्रह न होने से अभिधावृत्ति प्रयोजन की बोधिका नहीं हो सकती।
. 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि स्थलों में जो पावनत्वादि धर्म तटादि में प्रतीत होते हैं उनमें गङ्गा आदि शब्दों का संकेतग्रह नहीं है । अतः अभिधा से उसका ज्ञान नहीं हो सकता।
हेतु और साध्य दोनों का अधिकरण एक नहीं है इसलिए, तथा दोनों अभिन्न हैं इसलिए भी यहाँ अनुमिति नहीं हो सकती। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्र २४ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं "गङ्गायां घोषः"
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