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हितीय उल्लासः
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क्वचित् तादादुपचारः । यथा- इन्द्रार्था स्थूणा 'इन्द्रः' । क्वचित् स्वस्वामि
पुरोवत्तित्वादेरेव बुद्धिस्थतादशायां तत्र साध्यवसानतायाः सम्भवाद् वाहीकत्वादिना बुद्धिस्थतादशायां तस्य सारोपोदाहरणत्वात्, सर्वनामस्थले बुद्धिस्थत्वस्यैव प्रकारताया युक्तिसहत्वात् । तथाहि-यद्धर्मावच्छिन्नतयोपस्थिते शक्तिग्रहः स एव धर्मस्तत्पदजन्योपस्थितौ प्रकार इति. सर्वसिद्धम् । तथा च तत्र तदादिपदे तत्तत्प्रकाराणामनन्ततया विशिष्योपस्थितेरसम्भवेन तत्तदवच्छिन्नतयोपस्थितेषु न शक्तिग्रहः तथा सति बुद्धिस्थत्वेनोपस्थित्यापत्तावनुभवविरोधात् ।।
किञ्च शक्यतावच्छेदकीभूतप्रकाराणां बुद्धिस्थत्वस्यानवच्छेदकत्वे शक्यतावच्छेदकानन्त्येनानेकशक्तिकल्पनागौरवं शक्येषु च तस्यावच्छेदकत्वे शक्यतावच्छेदकैक्ये, नैकशक्तिकल्पनालाघवमिति युक्तमुत्पश्यामः। अन्यलक्षण्येनान्यकारणापेक्षया प्राधान्येनाव्यभिचारेणान्यकारणराहित्येनान्यवैलक्षण्यं स्वरूपयोग्यताऽव्यभिचारः फलोपधायकतेति केचित् । कार्यकारणभावादीत्यादिपदग्राह्यसम्बन्धानाह
क्वचिदित्यादिना तक्षेत्यन्तेन । तादात्तादर्थ्यरूपसम्बन्धात् उपचारो लक्षणा, इन्द्रार्थेति ।
पदार्थ के निर्देश के साथ किया जाता है। इसलिए पुरोवर्ती पदार्थ ही जब बुद्धिस्थ रहेगा तो वहाँ साध्यमानता हो सकती है वाहीकत्व के रूप में जब वह बुद्धिस्थ रहेगा तब सारोपा मान सकते हैं। सर्वनाम के प्रयोगस्थल में बद्धिस्थत्व को ही प्रकारता माना उचित है। जिस धर्म से अवच्छिन्न उपस्थित में शक्तिग्रह होता है, वही धर्म उस पद से जन्य उपस्थिति में प्रकार होता है यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। इस प्रकार साध्यवसाना में वाहीक की परोवर्ती पदार्थरूपेण उपस्थिति रहती है और सारोपा में वाहीक की वाहीकत्वेन उपस्थिति रहती है। इस तरह तदादि पद में तत्तत्प्रकारों के अनन्त होने के कारण विशेष करके किसी की उपस्थिति ही नहीं हो सकती; इसलिए तत्तदवच्छिन्नतया उपस्थिति में शक्ति नहीं मानी जा सकती; क्योंकि वैसा मानने पर बुद्धिस्थ होने के कारण अनेकों की उपस्थिति होने से अनुभव में विरोध आ जायगा।
एक बात और, यदि शक्यतावच्छेदक के रूप में भासित होने वाले विशेषणों का बुद्धिस्थ पदार्थ को अनवोदक माने तो शक्यतावच्छेदक की अनन्तता के कारण अनन्त शवित की कल्पना करनी होगी, जिसमें गौरव होगा। शक्यार्थों का अवच्छेदक यदि बुद्धिस्थ पदार्थ को मानते हैं तो अनेक शक्ति नहीं माननी पड़ती है इससे लाघव होता है।
"आयुषतम्" "आयुरेवेदम्" यहां शुद्धा सारोपा और शुद्धा साध्यवसाना लक्षणा में घृत को आयुर्वर्धनकार्य का अमोघ कारण बताना ही लक्षणा का प्रयोजन है । घृत आयुर्वर्धनकार्य का अमोघ कारण है; अन्य कारणों की अपेक्षा यह विलक्षण कारण है। इसी बात को बताते हए लिखते हैं 'अन्य बलक्षण्येन' इत्यादि ।
पंक्ति का अर्थ है, अन्य कारणों की अपेक्षा यह प्रधान कारण है अव्यभिचरित कारण है और आयर्वर्धन के लिए घी को कारण बनने के लिए किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं होती है। यही घी में अन्यकारण-वलक्षण्य है । स्वरूपयोग्यता ही अव्यभिचार है और वही फलोपधायकता है। ऐसा किसी का मत है।
कार्यकारणभावादि में आदि पद ग्राह्यसम्बन्धों को 'क्वचित्' यहाँ से लेकर 'तक्षा' यहां तक के ग्रन्थ से बताते हैं। कहीं लक्षणा तादर्थ्य सम्बन्ध को लेकर होती है जैसे इन्द्र की पूजा के लिए बनाये गये स्थूण को 'इन्द्र' कहते हैं। यज्ञ में इन्द्र देवता की पूजा के लिए आरोपित स्थूण भी इन्द्र कहलाता है। वृत्ति में 'इन्द्रार्थी'