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काव्यप्रकाश
भावात् । यथा-राजकीय: पुरुषो 'राजा' । क्वचिदवयवावयविभावात् । यथा-अग्रहस्त इत्यत्राग्रमात्रेऽवयवे 'हस्तः' । क्वचित् तात्कात्, यथा अतक्षा 'तक्षा'। सम्बन्धप्रकटनार्थं न तु लक्षणाकारप्रदर्शनार्थं 'स्थूणा इन्द्र' इत्येतावति च तत्प्रदर्शनसम्भवात् । अग्रहस्तेति । अग्रश्चासौ हस्तश्चेत्यर्थः, अन्यथा हस्तपदे लक्षणानुपपत्तेः । एषु च यथाक्रममिष्टप्रदत्वम् अलङ्घनीयाज्ञत्वं बलाधिक्यं नैपुण्यातिशयश्च प्रयोजनमवगन्तव्यम् । अत्र यद्यपि लक्षणामात्रप्रदर्शनेनापि लाक्षणिकशब्दनिरूपणं सम्भवत्येव तथापि भेदप्रदर्शनं काव्यभेदोपयोगित्वमेषां प्रदर्शयितुम् । तथाहिउपादानलक्षणार्थान्तरसङ्क्रमितवाच्यध्वन्युपयोगिनी, लक्षणलक्षणा चात्यन्ततिरस्कृतवाच्ये' [उपयोगिनी, गौणसारोपा रूपकालारोपयोगिनी, गौणसाध्यवसाना च प्रथमातिशयोक्तिप्रयोजिका शुद्धसारोपा (तु ?) चतुर्थातिशयोक्तिलक्षिका, शुद्धसाध्यवसाना च सहकारिव्युदासेन कार्यकारित्वरूपसामर्थ्यातिशयव्यङ्गयोपदर्शिकेति ध्येयम् ।
यह शब्द सम्बन्ध प्रकट करने के लिये लिखा गया है; किन्तु लक्षणा का आकार प्रकट करने के लिए नहीं। "स्थूणा इन्द्रः" इतना लिखने से ही लक्षणा का आकार प्रकट हो जाता था। कहीं स्व-स्वामिभावसम्बन्ध से उपचार (अन्य शब्द का अन्यत्र प्रयोग) होता है जैसे 'राजकीय पुरुष भी (राजा का विशेष कृपापात्र मनुष्य भी) 'राजा' कहलाता है। कहीं अवयवावयविभावसम्बन्ध से लक्षणा होती है, उपचार होता है, 'अग्रहस्त' यहां हाथ के केवल अग्रिम भाग के लिए 'हाथ' शब्द का प्रयोग हुआ है। यहां अग्रहस्त में 'अग्रश्चासौ हस्तश्च' इस रूप में (कर्मधारय समास मानना चाहिए) यदि "अग्रहस्त' इस अखण्ड शब्द को हस्ताग्रवाचक माने या 'हस्तस्य अग्रम्' इस विग्रह में समास करके अग्र शब्द का 'आहिताग्न्यादि' गण में पाठ करके पूर्वनिपात माने या 'राजदन्तादि गण' में हस्त शब्द का पाठ मान कर परनिपात मानें तो यहां लक्षणा नहीं होगी। इसलिए कर्मधारय समास ही मानना चाहिए। इन्द्रार्था स्थूणा 'इन्द्रः'; राजकीयः पुरुषः 'राजा', 'अग्रहस्तः' क्वचित् तात्कम्यत् ियथा अतक्षा 'तक्षा' इन उदाहरणों में क्रमशः इष्टफलदातृत्व, अलङ्घनीय आज्ञात्व, बलाधिक्य और नैपुण्याधिक्यरूप प्रयोजन जानना चाहिए।
यद्यपि लक्षणा मात्र के वर्णन से लाक्षणिक शब्द का निरूपण हो ही जाता था तथापि लक्षणा के भेद काव्य के भेदों के ज्ञान के लिए उपयोगी हैं यही दिखाने के लिए यहाँ लक्षणा के भेदों का निरूपण किया गया। जैसे कि उपादान लक्षणा 'अर्थान्तर संक्रमित वाच्य' नामक ध्वनि (ज्ञान) के लिए उपयोगी है तथा लक्षण-लक्षणा अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य ध्वनि में उपयोगिनी है।
गौणी सारोपा रूपकाङ्कार के लिए और गौणी साध्यवसाना प्रथम अतिशयोक्ति (रूपकातिशयोक्ति) के लिए आवश्यक है। शुद्धा सारोपा तो चतुर्थ अतिशयोक्ति के ज्ञान में सहायक होती है। शुद्ध साध्यवसाना भा सहकारी के बिना कार्यकारित्वरूप सामर्थ्यातिशय व्यङ्गय को प्रकट करती है। इसलिए इन भेदों का वर्णन किया गया है यह समझना चाहिए।
उपसंहार करते हुए बताते हैं कि "लक्षणा तेन षड्विधा" । पूर्वोक्त पंक्तियों में काव्यप्रकाशकारने लक्षणा के ६ भेद बताये हैं। सर्वप्रथम लक्षणा के दो भेद हैं-१ शुद्धा और २ गौणी। उनमें शुद्धा के चार भेद हैं(क) उपादानलक्षणा सारोपा शुद्धा (ख) उपादानलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा (ग) लक्षणलक्षणा सारोपा शुद्धा (घ) लक्षणलक्षणा साध्यवसाना शुद्धा ।
१. वनाविति शेषः।