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द्वितीय उल्लासः एवमादौ च कार्यकारणभावादिलक्षणपूर्वे आरोपाध्यवसाने ।
अत्र गौणभेदयो देऽपि ताद्रूप्यप्रतीतिः सर्वथैवाभेदावगमश्च प्रयोजनम् ।
प्रायुरिति । सम्बन्धान्तरतस्तथेति व्याचष्टे-सादृश्यादन्यदिति । सम्बन्धान्तरमित्यनन्तरं वर्तते इति शेषः। ननु सम्बन्धान्तरस्य विद्यमानतामात्र न शुद्धात्वप्रयोजक 'गौर्वाहीक' इत्यत्राप्येकबद्धिविषयत्वादेः सम्बन्धान्तरस्य सत्त्वेन शद्धत्वापत्तेः, 'आयुर्घ तमि'त्यत्रापि प्रमेयत्वादिना सादृश्यसत्त्वेना गौणत्वापत्तेः, अपि तु तत्तत्सम्बन्धपुरस्कारेण प्रयुक्तत्वं तथात्वप्रयोजकम् । तत्कथं सादृश्यान्यसम्बन्धकत्तामात्रेणेदं शुद्धसारोपसाध्यवसानोदाहरणमित्यत आह
एवमादाविति । कार्यकारणभावादिलक्ष्यते ज्ञायतेऽनेनेति कार्यकारणभावलक्षणकार्यकारणभावस्पष्ट है। यदि तात्पर्यवश उसमें नियमन मानें तो वह व्याप्तिग्रह का भी नियामक हो सकता है। जैसे "मञ्चाः कोशन्ति" जब कहते हैं तो मञ्च की अलग-अलग प्रतीति ही नहीं रह जाती है। इसलिए दैशिक और कालिक भेद में प्रतीति की गुञ्जाइश ही कहाँ है ? इस तरह अनुमान से ही लक्षणा गतार्थ है। अविनाभाव का अर्थ अगर व्याप्ति लें और तब अनुमान से ही काम चल जाने से लक्षणा की उपयोगिता शेष नहीं रह जाय तो कोई आपत्ति नहीं
वस्तुतः शब्द जब स्वपरक होता है तो वहाँ लक्षणा आवश्यक है। जैसे "द्विरेफ" शब्द का लक्ष्यार्थ है प्रमर'। यह शब्द अभिधा के द्वारा "द्वौ रेफो यस्मिन्" इस योगार्थ का बोधक होने के कारण "भ्रमर" इस शब्द का बोधक बनेगा परन्तु तात्पर्य तो शब्द में नहीं अपितु 'भ्रमर' अर्थ में है। इसलिए यहाँ लक्षणा मानना आवश्यक है क्योंकि शब्द का अर्थ के साथ दैशिक और कालिक भी अविनाभाव नहीं है। शब्द का आधार आकाश देश है और अर्थ का पथिव्यादि द्रव्य । इसलिए दैशिक व्याप्ति नहीं है और शब्द तो आशु-विनाशी है। अर्थ उसकी अपेक्षा अधिक-काल-स्थायी है । घटार्थ पहले भी था, अब भी है और भविष्य में भी शायद रहे । इसलिए घट अर्थ और घट शब्द की कालिक व्याप्ति भी नहीं है अतः 'अविनाभाव' कहने से 'द्विरेफ' में लक्षणा नहीं होती थी। इसलिए 'अविनाभाव' से सम्बन्धमात्र लेना चहिए।
शुद्ध सारोपा और शुद्ध साध्यवसाना का उदाहरण देते हैं-"आयुर्घतम्" "आयुरेवेदम् ।” “घी आयु है अयवा यह (घी) आयु ही है।' इत्यादि स्थल में सादृश्य से भिन्न कार्यकारणभाव आदि अन्य सम्बन्ध लक्षणा के प्रयोजक हैं। इस प्रकार के उदाहरणों में कार्यकारणभाव-सम्बन्धपूर्वक आरोप और अध्यवसान होते हैं। तात्पर्य यह है कि "आयुर्घतम्" में आरोप्यमाण आयु और आरोप विषय घी दोनों शब्दतः उपात्त हैं; इसलिए यहाँ 'सारोपा शुद्धा लक्षणा' है और "आयुरेवेदम्" यहाँ आरोपविषय घृत शब्दतः उपात्त नहीं है। इसलिए साध्यवसाना लक्षणा मानते हैं।
"सम्बन्धान्तरतस्तथा" इसकी व्याख्या है "साहश्यादन्यत्" अर्थात् 'सादृश्य से अन्य' । सम्बन्धातर के बाद "वर्तते" शब्द का शेष मानना चाहिए। इस तरह पूरे वाक्य का अर्थ हुआ कि 'आयुर्घतम्' 'आयुरेवेदम्' इत्यादि स्थल में सादृश्य से अन्य सम्बन्धान्तर है।
अन्य सम्बन्ध का होना ही शुद्धात्व का प्रयोजक नहीं मानना चाहिए। ऐसा मानने से “गोर्वाहीकः" में 'एकबुद्धिविषयस्वरूपसम्बन्धान्तर' के कारण शुद्धा लक्षणा माननी पड़ेगी। तात्पर्य यह है कि "गोहीकः" में गौ और वाहीक दोनों का यदि बोध है तो दोनों में एकबुद्धि विषयतारूप सम्बन्धान्तर होने के कारण सादृश्य से भिन्न सम्बन्ध होने से शुद्धा लक्षणा माननी पड़ेगी।