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काव्यप्रकाशः
'गङ्गायां घोष:' इत्यत्र तटस्य घोषाधिकरणत्वसिद्धये गङ्गाशब्दः स्वार्थमर्पयति इत्येवमादौ लक्षणेनैषा लक्षणा ।
गुरुमते । श्रुतशब्दादन्वयानुपपत्तौ शब्दकल्पनं श्रुतार्थापत्तिः, अर्थमात्रकल्पनंमर्थापत्तिः ।
लक्षणलक्षणामुदाहरति-- गङ्गायामिति । ननु शक्यानुपस्थापकलक्षणात्वस्य लक्षणलक्षणालक्षणत्वे गौर्नित्येत्यत्राव्याप्तिः तत्र लक्षणया गोरवच्छेदकतयोपस्थापनाद् अपरपदार्थानन्वयिशक्योखानेवाले देवदत्त के मोटापन को देखकर उसके उपपादक अर्थ - रात्रि भोजन की कल्पना अर्थापत्ति के द्वारा हुई | क्योंकि दिन में न खाने वाला व्यक्ति बिना रात्रि भोजन के मोटा नहीं रह सकता ।
अर्थापत्ति के दो भेद होते हैं- १. श्रुतार्थापत्ति और २. दृष्टार्थापत्ति ।
जहाँ अन्य के मुख से अनुपपद्यमान अर्थ को सुनकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना की जाती है, वहाँ श्रुतार्थापत्ति होती है ।
जहां अनुपपद्यमान अर्थ को स्वयं आँखों से देखकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना की जाती है; दृष्टार्थापत्ति मानी जाती है।
मम्मट ने 'दृष्टार्थापत्ति' के स्थान पर अर्थार्थापत्ति का प्रयोग किया है। टीकाकार (श्री १०८ यशोविजय जी महाराज ने अर्थापत्ति ही लिखा है। शायद एक "र्था" लिखते समय रह गया हो ! अर्थार्थापत्ति पक्ष में रात्रिभोजनरूप अर्थ का ज्ञान बिना रात्रिभोजन रूप अर्थ के आक्षेप से होता है। किन्तु श्रुतार्थापत्ति में यहां इस शब्द के अध्याहार से होता है ।
इसी बात को टीकाकार ने लिखा है - श्रुतशब्दादन्वयानुपपत्तौ शब्दकल्पनं श्रुतार्थापत्तिः अर्थमात्रकल्पनमर्थापत्तिः । ( हिन्दी अर्थ पहले लिखा गया है) लक्षरण लक्षरणा का उदाहरण
'गङ्गायां घोष:' इत्यादि (वृत्ति का अर्थ ) -
'गङ्गायां घोष:' इसमें (वाक्य के भीतर प्रयुक्त) घोष के अधिकरणत्व की सिद्धि के लिये 'गङ्गा' शब्द अपने जलप्रवाहरूप मुख्य अर्थ का परित्याग कर देता है, इसलिये इस प्रकार के उदाहरणों में यह 'लक्षण लक्षणा' होती है। यह दोनों प्रकार की लक्षणा उपचार से मिश्रित न होने के कारण शुद्धा है ।
लक्षण-लक्षणा का उदाहरण देते हैं: - " गङ्गायां घोषः " । लक्षण-लक्षणा किसे कहते हैं ? यदि शक्य अर्थ
"गौनित्या" "गाय नित्य है' यहां अव्याप्ति - दोष गो रूप शक्यार्थ ( गोत्व जाति) की अवच्छेदक के
की उपस्थिति नहीं करानेवाली लक्षणा को लक्षण-लक्षणा मानें तो हो जायगा क्योंकि यहाँ सभी लक्षण लक्षणा मानते हैं परन्तु यहाँ रूप में उपस्थिति पायी जाती है ।
"रात्रौ भुङ्क्ते" शब्द के अध्याहार के साक्षात् रात्रिरूप भोजन का ज्ञान "रात्रौ भुङ्क्ते"
यदि यह कहें कि और पदार्थ के साथ अन्वय न प्राप्त किये हुए शक्य की उपस्थापिका लक्षणा लक्षणलक्षणा है "अपरपदार्थानन्वयिशक्योपस्थापकत्वं लक्षणलक्षणात्वम्" तो 'गङ्गायां घोष:' यहां अव्याप्ति-दोष हो जायगा; क्योंकि यहाँ गङ्गारूप शक्य की उपस्थिति लक्षणा से नहीं होती है ।
"अपरपदार्थान्वयिशक्यानुपस्थापकत्वं लक्षणलक्षणात्वम्" यह लक्षण तो सिद्धि और असिद्धि दोषों से दूषित है । लक्षण का लक्षण यदि अपर पदार्थ से अन्वित शक्यानुपस्थापकत्व को मानें तो यह लक्षण सिद्धि और असिद्धि दोष से दूषित होगा । क्योंकि "गङ्गायां घोष" में तटमात्र के लक्ष्यार्थं होने के कारण लक्षण समन्वय हो जाने से लक्षण में सिद्धि और "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् " में अन्य दध्युपघातक प्राणिसम्वलित काकरूप शक्यार्थ की उपस्थिति होने के कारण लक्षण समन्वय न होने से लक्षणा में असिद्धि आयेगी ।