Book Title: Kavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Author(s): Yashovijay
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 223
________________ द्वितीय उल्लासः वयं तु-शक्यस्यापरपदार्थान्वयश्चेदुपादानताप्रयोजकस्तदा 'पीनो न भुङ्क्ते' इत्यत्र कथमुपादानलक्षणा 'कुन्ताः प्रविशन्ती'त्यत्र कुन्तस्य प्रवेशान्वयवत् पीनत्वस्य न भुङ्क्ते इत्यादावनन्वयादित्यत आह-पोनो इति । तथा च तत एवात्र नोपादानलक्षणेति व्याचक्ष्महे ।। .. केचित्तु व्यक्त्यविनाभाविवादित्यनेनान्यलभ्येन लक्षणेत्युक्तं तत्प्रपञ्च एवायमपि तेन क्रियता. मित्यत्र कर्ता, प्रविशेत्यादौ गृहमित्यादि, पीन इत्यत्र च रात्रिभोजनं यथा न लक्ष्यते, तथाऽत्रापि व्यक्तिर्न लक्ष्यत इत्यर्थ इति वदन्ति । वस्तुतो लक्षणलक्षणायां पीन इत्याद्यदाहरणं न सम्भवति, रात्रिभोजनस्यार्थापत्तिलभ्यत्वात् । अपि तु गङ्गायामित्याद्येवेत्युत्तरग्रन्थेनान्वय इत्यपि प्रतिभाति, श्रुतार्थापत्त रीति भट्टमतेऽर्थापत्तरिति दिन में नहीं खानेपर बहुत से प्राणी (चमगादड़-उलूक और कुछ मनुष्य भी) पीन देखे गये हैं । इसलिए दिवाभोजनाभाव के अधिकरण 1) देवदत्त में पीनत्व का रहना उत्कर्षाधायक नहीं माना जा सकता । इस प्रकार 'पीनोऽयं देवदत्तः' यहाँ न मुख्यार्थ-बाध है और न प्रयोजन; फिर उपादान लक्षणा कैसे.....? हम तो "पीनोऽयं देवदत्तः" में उपादान-लक्षणा न माननेवाले मम्मट के सम्बद्ध-सन्दर्भ की व्याख्या इस प्रकार करते हैं :-शक्य का अपर पदार्थ में अन्वय यदि उपादान-लक्षणा का प्रयोजक (कारण या जनक) है तब "पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते" में कैसे उपादान-लक्षणा हो सकती है ? (उपादान-लक्षणा के उदाहरण) कुन्ताः प्रविशन्ति में जैसे कुन्त का प्रवेश पदार्थ में अन्वय होता है; वैसे पीनत्व का "न भुङ्क्ते" पदार्थ में अन्वय नहीं होता; इसी तात्पर्य को दिखाते हुए कहते हैं—पीनो....."। इसी से यहाँ उपादान-लक्षणा नहीं है। किसी का मत किसी ने कहा है कि "व्यक्त्यविनाभावित्वात्" इससे यह बताया गया है कि अन्यलभ्य में लक्षणा नहीं होती है। जैसे 'पीनोऽयं देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' यहां रात्रिभोजनरूप अर्थ आक्षेप या अनुमान लभ्य है इसलिए वहां लमणा नहीं होती। इसी प्रकार "गौरनुबन्ध्यः" में व्यक्ति भी आक्षेपलभ्य है; वहाँ लक्षणा नहीं होगी। उसी का प्रपञ्च (विस्तार से वर्णन)" क्रियतामित्यत्र कर्ता इत्यादि पङ्क्तियों में दिखाया गया है। तात्पर्य यह है कि जैसे क्रियताम् यहाँ कर्ता (त्वया), प्रविश यहाँ पर 'गृहम्' यह कर्म, पीनोऽयम् 'यहां रात्रि भोजन लक्षणा के द्वारा नहीं जाने जाते हैं; उसी तरह यहाँ (गौरनुबन्ध्यः) भी व्यक्ति को लक्ष्य (लक्षणा द्वारा प्रतिपाद्य) नहीं मानना चाहिए। वस्तुतः लक्षण-लक्षणा का 'पीनोऽयम्' इत्यादि उदाहरण नहीं हो सकता; क्योंकि रात्रि-भोजन रूप अर्थ यहाँ अर्थापत्ति से ही लभ्य है-उपस्थित हो जाता है। किन्तु "गङ्गायां घोषः” इत्यादि ही (लक्षण-लक्षणा का उदाहरण हो सकता है) इस उत्तर ग्रन्थ से (बाद में आने वाले सन्दर्भ से) उसका अन्वय है यह (मुझे) प्रतीत होता है। "पीनोऽयं देवदत्तः" यह तो श्र तार्थापत्ति का विषय है। इसका तात्पर्य स्पष्ट करते हुए टीकाकार लिखते हैं कि 'पूर्वोक्त उदाहरण में भट्ट (कुमारिल भट्ट) श्रु तार्थापत्ति मानते हैं और गुरु (प्रभाकर) अर्थापत्ति मानते हैं । सुने हुए शब्द से अन्वय की उपपत्ति न होने पर जहाँ शब्द की कल्पना की जाती है; वहाँ श्रुतार्थापत्ति मानी जाती है । (अनुपपद्यमान अर्थ से) जहाँ (उपपद्यमान) अर्थमात्र की कल्पना की जाती है; वहाँ अर्थार्थापत्ति होती है। विशेष मीमांसक प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों के समान अर्थापत्ति को भी अलग प्रमाण मानते हैं । अर्थापत्ति का लक्षण वे इस प्रकार करते हैं "अनुपपद्यमानार्थ-दर्शनात् तदुपपादकीभूतार्थान्तरकल्पनम् ।” तात्पर्य यह है कि अनुपपद्यमान अर्थ को देखकर उसके उपपादक अर्थ की कल्पना जिस प्रमाण से की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहते हैं । जैसे "पीनोऽयं देवदत्तो दिवा न भूक्ते" यहाँ देवदत्त मोटा है, किन्तु दिन में नहीं खाता है यह अनुपपद्यमान अर्थ है, इस लिए उसके उपपादक अर्थ रात्रि भोजन का यहाँ आक्षेप किया जाता है। इस प्रकार अनुपपद्यमान अर्थ-दिन में न

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