________________
द्वितीय उल्लासः
[सू० १६] भेदाविमौ च सादृश्यात् सम्बन्धान्तरतस्तथा । गौ शुद्धौ च विज्ञेयौ
इमावारोपाध्यवसानरूपौ सादृश्यहेतू भेदी 'गौर्वाहीक' इत्यत्र 'गौरयम्' इत्यत्र च ।
m
८३
मेदाविति, तथा च तुशब्देनोपादानलक्षणलक्षणयोर्भेद उक्तो न तु शुद्धाभेदो, न वा गौणी' लक्षणातो भिन्ना वृत्तिरिति भावः ।
नन्वेवमिदं भेदद्वयं गौण्याः शुद्धायामपि इत्युक्त विभागानुपपत्तिः विभाज्यतावच्छेदकधमव्याप्यधर्मस्यैव सर्वत्र विभाजकतावच्छेदकत्वात्, न चात्र सारोपत्वसाध्यवसानत्वे गौणीत्वस्य शुद्धात्वस्य वा व्याप्ये, प्रथमे शुद्धायां द्वितीये गौण्यां व्यभिचारादित्यत आह
सादृश्यादिति, सादृश्याद् गौणी, सम्बन्धान्तरतः सादृश्यान्यसम्बन्धाच्छुद्धावित्यन्वयः तथा च सादृश्यसम्बन्धप्रवृत्तिके सारोपत्वसाध्यवसानत्वे गौणीत्वस्य तदन्यसम्बन्धप्रवृत्तिके च शुद्धात्वस्य व्याप्ये इति न विभागानुपपत्तिरिति भावः । तत्र गौणसारोपसाध्यवसानप्रभेदावुदाहरति इमाविति ।
ननु गौणी न लक्षण गोवाहीकयोस्तदुदाहरणविषययोः सम्बन्धाभावात् गुणरूपसारयसम्बन्धस्य प्रतिसम्बन्धिभिन्नत्वाद् अतो गौणी, वृत्त्यन्तरमेवेति शङ्कामपाकत्तुः मतभेदेन समाधत्ते ।
प्रश्न यह है कि कारिका (सारोपान्या तु) में तु शब्द का प्रयोग किया गया है। यह 'तु' शब्द पूर्व का व्यवच्छेदक होता है अर्थात् 'तु' शब्द का प्रयोग पूर्व-निर्दिष्ट अर्थ के साथ आगे आनेवाले अर्थ के साथ असम्बन्ध बताता है । इस तरह यही सिद्ध होता है कि पूर्व निर्दिष्ट शुद्धा के ये भेद नहीं होते हैं ।
इस तरह सिद्ध होता है सारोपात्व और साध्यवसानात्व में शुद्धान्योन्याभाव - व्याप्यत्व है । अर्थात् घटन पट: 'घड़ा कपड़ा नहीं है' इस अन्योन्याभाव का व्याप्य जैसे घट और पट है; उसी तरह "शुद्धा न सारोपाध्यवसाने" इस अभ्योन्याभाव का व्याप्य सारोपा और साध्यवसाना है, यह शङ्का नहीं की जा सकती; क्योंकि सारोपा और साध्यवसाना के लक्षण 'शुद्ध' में भी घट रहे हैं। इसलिए शुद्धा के भी ये भेद हो ही सकते हैं। दूसरी बात यह है कि " सिंहो माणवकः" यहाँ गोणी नामक अतिरिक्त वृत्ति है; यह अनेक शास्त्रों में कहा गया है; और वहाँ भी यह लक्षण अतिव्याप्त हो रहा है; क्योंकि 'अन्या तु' यहाँ अन्यादिपद से लक्षणा का ही ग्रहण करने की व्याख्या की गयी है इसीलिए लिखते हैं 'भेदाविति' - इस तरह 'तु' शब्द से उपादान लक्षणा और लक्षण लक्षणा का भेद बताया गया है । 'तु' के द्वारा शुद्धा का भेद या गौणी को लक्षणा से भिन्न वृत्ति नहीं बताया गया है । यही पूर्वोक्त पंक्ति का अक्षरार्थ है । सारोपा तथा साध्यवसाना के शुद्धा तथा गौणी दो भेद
भेदाविमौ च' इत्यादि मूलार्थ — ये (सारोपा और साध्यवसानारूप ) दोनों भेद सादृश्य से तथा ( सादृश्य को छोड़कर) अन्य सम्बन्ध से ( सम्पन्न ) होने पर ( क्रमशः) गौण तथा शुद्ध लक्षणा के भेद समझने चाहिये | गोणी सारोपा तथा साध्यवसाना के उदाहरण
है क्योंकि विभाज्यतावच्छेदकधर्मव्याप्यधर्मं को ही सब जगह विभाजकतावच्छेदक माना गया है ।
ये सारोपा तथा साध्यवसानारूप भेद सादृश्य-हेतुक होने पर 'गोर्वाहीकः ' 'वाहीक देश का वासी पुरुष गो है' और 'गोरयम्' 'यह गो है' इनमें है। (और सादृश्य होने से वे गौणी लक्षणा के भेद कहलाते हैं) ।
गौणी के ये दोनों भेद शुद्धा के भी हो सकते हैं । इस तरह उक्तविभाग करना गलत दिखाई पड़ता
सारोपात्व और साध्यवसानत्व, गोणीत्व और शुद्धात्व का व्याप्य धर्म नहीं है । प्रथम में शुद्धा में और द्वितीय में गौणी में व्यभिचार हो जायगा । "यत्र यत्र सारोपासाध्यवसानत्वे तत्र तत्र गौणीत्वम्" ऐसा नहीं कह सकते हैं