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काव्यप्रकाशः
इहागृहीतसङ्केतस्य शब्दस्यार्थप्रतीतेरभावात्सङ्केतसहाय एव शब्दोऽर्थविशेष प्रतिपादयतीति यस्य यत्राव्यवधानेन सङ्केतो गृह्यते स तस्य वाचकः । प्रसङ्ग इति वाच्यम्, गामुच्चारयतीत्यत्र गोपदस्य नानार्थकतया शब्दवाचकत्वेन तस्यापि सङ्केतविषयत्वात्।
अथ सङ्केतविषयतावच्छदकेन रूपेण साक्षात्सङ्केतविषयार्थप्रतिपादकत्वं तदर्थः, तत्र गोशब्दस्य साक्षात्सङ्केतविषयतावच्छेदकशब्दत्वरूपेण न गोशब्दजन्योपस्थितिः अपि तु गोशब्दत्वेनवेति नातिव्याप्तिः, न चैवं सङ्केतविषयत्वमर्थविशेषणं व्यर्थमिति वाच्यम्, ग्रन्थकारमते 'गङ्गायां घोष'इत्यादौ सङकेतविषयतावच्छेदकरूपेण गङात्वादिनैव तीरोपस्थितेस्तत्रातिव्याप्तिवारकत्वादिति चेद, मेवा छत्रिणो यान्तीत्याद्यजहत्स्वार्थलाक्षणिकेऽतिव्याप्तेः, तत्राप्येतन्मते छत्रित्वेनैव सकलगन्तणामुपस्थितेः, तात्पर्यसत्त्वे युगपद्वृत्तिद्वयविरोधाभावपक्षे गङ्गायां घोषमत्स्यावित्यादौ एकार्थलाक्षणिकगङ्गापदादावपरार्थमादाय लक्षणातिव्याप्तेः, "भद्रात्मन' इत्यादावभिधामूलव्यञ्जकेऽतिव्याप्तेः, यदृच्छात्मकशब्दवदपभ्रंशेऽप्याधुनिकसङ्केतसत्त्वेन तत्रातिव्याप्तेश्चेत्यतो व्याचष्टे-इहेति, तथा च यस्मिन् शब्दे यदा यदर्थ
कारण (किसी अर्थ की उपस्थिति नहीं होने से यहाँ अर्थविशेषणक शब्दविशेष्यक बोध भी नहीं होता किन्तु) यह बोध शुद्ध शब्दपरक है। इसलिए 'शब्द' भी शब्द का 'शक्य' होता है । इस प्रकार अतिव्याप्ति दोष न हो इसलिए "साक्षात् सङ्केतितं योऽर्थम" का अर्थ यह करना चाहिए कि सड़केत-विषयतावच्छेदकरूपेण साक्षात् सङ्केतविषयक अर्थ प्रतिपादक ही वाचक है । गो शब्द से गो शब्द की जो उपस्थिति होती है; वह इसलिए नहीं होती कि गो शब्द का साक्षात् संकेत गो शब्द में है अपितु साक्षात् संकेत गाय अर्थ में है इसलिए संकेत का विषय गाय अर्थ हुआ । उस अर्थ का अवच्छेदक शब्दत्वरूप में तो गाय अर्थ की ही उपस्थिति होगी गो शब्द की नहीं होगी। इसलिए वहाँ अतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ।
आपने जो वाचक का नव्यन्याय-शैली में लक्षण किया है उसमें अर्थ के साथ 'सड़केत-विषयत्वम्' यह जो विशेषण लगाया है वह यद्यपि व्यर्थ प्रतीत होता है परन्तु वह व्यर्थ नहीं है क्योंकि ग्रन्थकार के मत में 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि स्थलों में गङ्गा शब्द से ही तीर की उपस्थिति होती है अर्थात् गङ्गायां घोषः का अर्थ 'तीरे घोषः" यही होता है, गङ्गातीरे घोषः यह नहीं। इस तरह तीर की उपस्थिति गङ्गात्वरूपसङ्केत-विषयतावच्छेदक धर्म से होने के कारण अतिव्याप्ति न हो जाय इसलिए अर्थ में वह विशेषण लगाना आवश्यक था। ऐसा मानने पर भी 'छत्रिणो यान्ति' में अतिव्याप्ति दोष होगा। अधिकतर छत्रधारी और कुछ बिना छत्ते के जानेवालों को देखकर किये गये इस प्रयोग को लाक्षणिक माना जाता है। यहाँ 'अजहतस्वार्था लक्षणा' है । क्योंकि यहाँ मुख्यार्थ का सर्वथा त्याग नहीं हुआ है। वहाँ छत्रित्व रूप से ही सभी जानेवालों की उपस्थिति होती है। इसलिए वाचक का नव्यन्याय शैली में किया गया लक्षण भी यहाँ संघटित होता है। दसरी बात 'गङ्गायां घोषमत्स्यौं' यहाँ गंगाका एक अर्थ लक्ष्य है और दूसरा अर्थ वाच्य । यहाँ गङ्गा शब्द में वाचक का लक्षण चला जायगा; क्योंकि प्रवाहरूपं अर्थ की यहाँ गङगात्वेन उपस्थिति है ही। "भद्रात्मनः" इस श्लोक में जहाँ अभिधामूलक व्यञ्जना मानी गयी है वहाँ भी अतिव्याप्ति दोष हो जायगा। यहच्छाशब्द की तरह अपभ्रंश शब्द में भी आधुनिक संकेत के विद्यमान होने के कारण अतिव्याप्ति दोष हो जायगा इसीलिए वृत्तिकार ने कारिका की निर्दुष्ट व्याख्या "इहागृहीत" आदि शब्दों से की है।
इस तरह लक्षण का वाक्यार्थ यह हुआ कि-जिस शब्द में जब जिस अर्थ के लिए साक्षात् संकेत का ग्रहण बोधजनक हो, वह उस समय उस अर्थ का वाचक होगा।