________________
काम्यप्रकाशः
जननपक्षे तु गौनित्येति लक्षणलक्षणायामतिव्याप्तं तत्र गोरेव गोत्वविशेषणत्वात् । 'छत्रिणो यान्ती'त्यत्राव्याप्तिश्च तत्र शक्यस्य च्छत्रस्य लक्ष्यस्य छत्राभावस्य च न परस्परविशेषणविशेष्यभाव इत्यत आहप्रात्मनः प्रवेशसिद्धयमिति कुन्तादेः प्रवेशान्वयार्थमित्यर्थः । न चैवमपि क्रियान्वयिशक्योपस्थापकलक्षणात्वं तल्लक्षणं' पर्यवसितं तच्छत्रिणो यान्तीत्यत्राव्याप्तं,- तत्र मतूबर्थेन क्रियाभिन्नेन च्छत्रम्यान्वयादिति वाच्यम्, अपरपदार्थान्वयिशक्योपस्थापकलक्षणात्वस्य तल्लक्षणत्वादिति भावः । प्रविशन्तीत्यत्राख्यातस्याऽऽश्रयत्वलक्षणायामिदमुपादानलक्षणोदाहरणं, कुन्ते आख्यातार्थयत्नबाधेन पुरुषलक्षणायां पुनर्लक्षणलक्षणवेति बोध्यम् । लक्षण-लक्षणा के उदाहरणों में अतिव्याप्ति-दोष हो जायगा; क्योंकि वहाँ भी "गङ्गातीर पर घोष है" इस बोध में गङ्गा का (शक्यार्थ) प्रवाह विशेषण है और लक्ष्यार्थ तीर विशेष्य है । यदि यह कहें कि 'गङ्गायां घोषः' का अर्थ केवल 'तीरे घोषः' है, इसलिए उस बोध में शक्यार्थ विशेषण नहीं है, तो इस पक्ष में यहाँ दोष नहीं होगा किन्तु "गौनित्या" इस लक्षण-लक्षणा के उदाहरण में अतिव्याप्ति-दोष होगा। यहाँ गो व्यक्ति नित्य नहीं है इसलिए मुख्यार्थबाध है, लक्षणा के द्वारा गो शब्द गोत्व का बोध कराता है। यहाँ गोव्यक्तिविशेषणक-गोत्वजातिविशेष्यक बोध होता है इसलिए लक्षण-लक्षणा के उदाहरण में उपादान-लक्षणा का लक्षण घट जाने से अतिव्याप्ति-दोष होगा। . ..
"छत्रिणो यान्ति" यहाँ अव्याप्ति-दोष होगा। छत्तेवाले और बिना छत्ते वाले लोग जब जाते रहते हैं; तब छत्ते वालों की प्रचुरता के कारण कहा जाता है "छत्रिणो यान्ति" । पूर्वोक्त बोध में शक्यार्थ छत्र और लक्ष्यार्थ छत्राभाव दोनों में परस्पर विशेषण-विशेष्यभाव न होने से उपादान-लक्षणा का लक्षण समन्वित नहीं होगा। इसलिए वृत्ति में "आत्मनः प्रवेशसिद्धयर्थम्" लिखा गया है । इसका अर्थ है कि 'कुन्तादि को प्रवेश-क्रिया में अन्वय-सिद्धि के लिए कुन्त शब्द संयोग-सम्बन्ध से स्व-सम्बन्धी पुरुष की प्रतीति कराता है।'
इस तरह उपादान-लक्षणा का लक्षण इस रूप में फलित होता है कि 'क्रियान्वयि-शक्यार्थोपस्थापकलक्षणात्वम् ।' "कुन्ताः प्रविशन्ति" में कुन्त शब्द के शक्यार्थ का क्रिया में अन्वय है; इसलिए कोई दोष नहीं है। 'गङ्गायां घोषः' में गङ्गा शब्द के शक्यार्थ प्रवाह का क्रिया में अन्वय न होने से वहां अतिव्याप्ति नहीं हुई।
यदि उपादान-लक्षणा का लक्षण "क्रियान्वयि-शक्योपस्थापक-लक्षणात्वम्" यह मानें तो 'छत्रिणो यान्ति' में अव्याप्ति-दोष हो जायगा; क्योंकि यहाँ शक्यार्थ-छत्र का क्रिया में अन्वय न होकर मतप्रत्ययार्थ अर्थात् इन्प्रत्ययार्थ (धारी) में अन्वय है। इसलिए उपादान-लक्षणा का लक्षण इस प्रकार करना चाहिए कि "अपरपदार्थान्वयिशक्योपस्थापकलक्षणात्वम्"। अपर पदार्थ-धारी पदार्थ में अन्वित शक्यार्थ छत्र की उपस्थिति यहाँ लक्षणा के द्वारा होती ही है इसलिए दोष नहीं होगा।
'प्रविशन्ति' यहां आख्यात की लक्षणा अगर आश्रयत्व में करते हैं तो 'कुन्ताः प्रविशन्ति' यह उपादान-लक्षणा का उदाहरण होगा । आख्यातार्थ यत्न, अचेतन कुन्त में नहीं रह सकता इसलिए यदि 'कुन्ताः' पद की लक्षणा पुरुष में करें तो यह लक्षण-लक्षणा का उदाहरण होगा।
तात्पर्य यह है कि व्याकरण-सिद्धान्त के अनुसार यदि तिङर्थ को आश्रय माने तो अर्थ होगा 'कुन्तधारिपुरुषाश्रयः प्रवेशनानुकूलो व्यापारः।' इस अर्थ में शक्यार्थ कुन्त का भी क्रिया में धारि पुरुषपदार्थ के साथ अन्वय हो सकता है, इसलिए उपादान-लक्षणा है।
किन्तु नैयायिक के अनुसार यदि आख्यात का अर्थ यल माने तो अचेतन कुन्त में यत्न का अन्वय बाधित होने के कारण कुन्त शब्द स्वार्थ का परित्याग कर पुरुष की प्रतीति करायेगा, इस तरह यह उदाहरण लक्षण-लक्षणा का होगा।
१. उपादानलक्षणा।