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काव्यप्रकाशः
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कुन्तविशिष्टपुरुषोपस्थितिपक्षे च न काऽप्यनुपपत्तिः । ननु छत्रिणो यान्तीत्यत्र च्छत्रपदे एकसार्थगमनलक्षणायां जहत्स्वार्थापत्तिः गमनवत्त्वेनोपस्थितस्य गमनाकाङ्क्षाविरहेण यान्तीत्यनेनानन्वयापत्तिश्च । यत्तु च्छत्रपदे छत्राभावविशिष्टच्छत्रे लक्षणा, वैशिष्टयं च स्वाश्रयगमनकालीनगमनववृत्तित्वं, यदि च्छत्र्यच्छत्रिणोभिन्नदेशीयगमनवत्त्वे नैतादृशः प्रयोगस्तदा वैशिष्टये देशघटितं सामानाधिकरण्यमपि प्रवेश्यताम्, यत्र च एकः छत्री छत्रशून्याश्च बहवः तत्र बहुत्वान्वयानुरोधाच्छत्र विशिष्टच्छत्राभावे लक्षणेति, तन्न। यत्र छत्रिणी द्वावच्छत्रिणी च द्वौ तत्र कथितप्रकाराभ्यां बहुत्वान्वयानुपपत्तेः ।
यत्तु चेतनाचेतनसाधारणस्यकसार्थगमनस्य च्छत्रपदेन लक्षणात् तस्य छत्रसाधारण्येनाजहत्स्वार्थत्वम्, शक्यलक्ष्यसाधारणधर्मेण लक्षणाया एवाजहत्स्वार्थत्वादिति मणिकारमतम्, तदपि न । छत्रविशेष
कुन्तत्वरूप में ही कुन्तविशिष्ट पुरुष की उपस्थिति-पक्ष में कोई अनुपपत्ति नहीं होती है ।
अस्तु 'छत्रिणो यान्ति' यहाँ छत्र पद में यदि एक सार्थ (समूह) द्वारा किये जानेवाले गमन अर्थ में लक्षणा करते हैं तो यह लक्षणा जहत्स्वार्था अर्थात् लक्षण-लक्षणा हो जायगी। इस तरह यहाँ लक्षण-लक्षणा के लक्षण में अतिव्याप्ति दोष हो जायगा; क्योंकि छत्रपद छत्रधारी और अच्छत्रधारी समुदाय का उपलक्षण बन जायगा। दूसरा दोष यह भी होगा कि यदि लक्षणा द्वारा छत्र पद तादृश छत्रधारी और अच्छत्रधारी-समुदाय-कर्तृक गमन का उपस्थापक बनेगा तब गमन अर्थ में छत्र पद सांकांक्ष नहीं रहेगा, क्योंकि गमनवत्त्वरूप में तो छत्र पद से ही उसकी उपस्थिति हो गयी है किन्तु निराकांक्ष हो जाने के कारण 'छत्रिणः' पद का 'यान्ति' पद के साथ अन्वय न होने के कारण आपत्ति आयेगी।
किसी ने पूर्वदोष के समाधान के लिए जो यह कहा कि-छत्र पद की छत्राभावविशिष्ट छत्र पद में लक्षणा करेंगे अर्थात् छत्र पद लक्षणा के द्वारा छत्राभावविशिष्ट छत्र का बोधक होगा। यहाँ वैशिष्टय स्वाश्रयगमनकालीनगमनववत्तित्व-सम्बन्ध से लिया जायगा । तात्पर्य यह है कि जब छत्ते वाले और बिना छत्ते वाले जा रहे हैं: तब कहा गया है। "छत्रिणो यान्ति' सभी छत्तेवाले नहीं जा रहे हैं इसलिए यहाँ मुख्यार्थ बाध है और उपादान-लक्षणा है छत्तवाले और बिना छत्त वाले दोनों का अन्वय एक ही गमन-क्रिया में है इसलिए स्व- (छत्राभाव) में आश्रय (विद्यमान) जो गमन, उस गमन का जो काल अर्थात् वर्तमान काल उसी काल में गमनवान है छत्त वाला उसमें वृत्तिता है छत्र की, इसलिए 'स्वाश्रय-गमनकालीनगमनवद्-वृत्तित्व' सम्बन्ध से छत्र पद छत्राभाव-विशिष्ट छत्र का बोधक हो जायगा अर्थात् छत्रवान् और छत्राभाववान में गमन-क्रिया समान है इसलिए छत्रिपद छत्राभाववान् सहित छत्रवान् का बोधक हो जायगा।
__यदि छत्तेवालों और बिना छत्तेवालों के अलग-अलग स्थानों में गमन करने पर ऐसा प्रयोग नहीं होता है, ऐसा अभीष्ट हो तो वैशिष्ट्य में देशघटित सामानाधिकरण्य का भी निवेश करना चाहिए । अर्थात् जहाँ छत्तेवाले और बिना छत्तेवाले दोनों का गमन एकदेशघटित हो वहीं लक्षणा होगी।
जहाँ पर एक छत्तेवाला और बहुत से बिना छत्तेवाले जाते हैं वहाँ छत्रविशिष्ट छत्राभाव में छत्र शब्द की लक्षणा है, यह मत ठीक नहीं है। क्योंकि जहाँ दो छत्रधारी और दो बिना छत्ते के होंगे वहाँ उक्त प्रकारों से लक्षणा करने पर बहुत्व के साथ अन्वय नहीं हो पायेगा।
तथा 'छत्रिणो यान्ति' में जहत्स्वार्था-लक्षणा के निवारण और अजहत्स्वार्था के समर्थन के लिए मणिकार ने कहा है कि यहाँ "छत्र पद से चेतन और अचेतन दोनों के समूह के एक साथ गमन का बोध लक्षणा के द्वारा होता है। वह गमन छत्र-साधारण है इसलिए यहाँ अजहतुस्वार्था लक्षणा है । अर्थात् उस गमन में छत्रधारी भी कर्ता है इसलिए