________________
द्वितीय उल्लासः
इत्युपादानलक्षणा तु नोदाहर्तव्या। न ह्यत्र प्रयोजनमस्ति न वा रूढिरियम् ।
मधुमतीकृतस्तु-ननु माऽस्तु प्रयोजनवतीयमुपादानलक्षणा निष्प्रयोजनैवेयं निरूढरूपोपादानलक्षणाऽस्त्वित्यत आह-नवेति । इत्थमुपादानलक्षणाप्रयोजनाभावो हि निरूढत्वव्यापकः। न चोपादानलक्षणा, निरूढोपादानत्वस्य प्रयोजनवतीप्रभेदत्वादित्यर्थ इत्याहुः । तन्न । तेन प्रयोजनवत्त्वस्योपादानत्वव्यापकत्वानङ्गीकारात्, स्वमतेऽपि 'चित्रगु'रित्यत्र लक्षणलक्षणाया 'लम्बकर्ण' इत्यत्रोपादानलक्षणायाः सम्भवे बाधकाभावाच्च, तस्मादेवं व्याख्येयम् । ननु कथं नोपादानलक्षणेत्यत आह
' नात्रेति । प्रयोजनं शक्यस्यापरपदार्थेनान्वयबोधरूपम् उपादानताप्रयोजकम् । उपादानलक्षणायां मधुमतीकार ने “न वा रूढिरियम्" की व्याख्या इस प्रकार की है :
"गौरनुबन्ध्यः" यहाँ प्रयोजनवती उपादान-लक्षणा' प्रयोजन के बिना यदि नहीं है, तो रहे किन्तु यहाँ विना प्रयोजन के होनेवाली 'निरूढा उपादान-लक्षणा' क्यों नहीं हो सकती? इस प्रश्न के समाधान के लिए वृत्तिकार ने लिखा है "न वा"। इस प्रकार इस पंक्ति से यह सूचित किया है कि उपादान लक्षणा के प्रयोजन का अभाव निरूढत्व का व्यापक धर्म है। अर्थात् “यत्र-यत्र उपादानलक्षणाप्रयोजनाभावः तत्र-तत्र निरूढात्वम्" इस तरह जहाँ प्रयोजन नहीं है, वह सारी लक्षणा निरूढा होगी। किन्तु यहां उपादान-लक्षणा (मान ही नहीं सकते; क्योंकि उपादान-लक्षणा) का 'प्रयोजजवती' उपादान-लक्षणा एक ही भेद होता है जहाँ आपके विचार से निरूढ उपादानत्व है वहाँ भी कुछ-न-कुछ प्रयोजन निकाला जा सकता है, इसलिए निरूढोपादान-लक्षणा भी 'प्रयोजनवती' का ही प्रभेद है। इस तरह मधुमतीकार ने वृत्ति ग्रन्थ की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। किन्तु उनकी यह व्याख्या निर्दुष्ट नहीं है; क्योंकि प्रयोजनवत्त्व को उपादान का व्यापकधर्म नहीं माना गया है “यत्र-यत्र उपादानत्वं तत्र-तत्र प्रयोजनवत्त्वम्” ऐसा नहीं माना गया है। उपादान रहने पर भी प्रयोजन नहीं रहता है। इसलिए उपादान-लक्षणा प्रयोजनवती ही होती है, यह नहीं माना जा सकता।
"चित्रगुम् आनय", कहने पर जो व्यक्ति लाया जायगा उसके साथ समासघटक पदार्थ चितकबरी गाय नहीं आएगी। किन्तु 'लम्बकर्णमानय' कहने पर जिसे लाया जायगा उसके साथ समासघटक पदार्थ लम्बकर्ण का आनयन होगा इसे वैयाकरण क्रमशः 'अतद्गुण-संविज्ञान-बहुव्रीहि' और 'तद्गुण-संविज्ञान-बहुव्रीहि' कहते हैं। समास में शक्ति नहीं मानने वाले दार्शनिक 'चित्रगु' में लक्षण-लक्षणा मानते हैं क्योंकि यहाँ का "चित्र-गु" शब्द व्यक्तिविशेष का ही बोध कराता है चित्रा और गाय का नहीं। इसलिए "आनय” रूप वाक्यार्थ में व्यक्ति-विशेष (लक्ष्यार्थ) की अन्वय-सिद्धि के मुख्यार्थ का समर्पण कर देता है। समाज में शक्ति नहीं मानने वाले दार्शनिक 'लम्बकर्णमानय' में उपादन-लक्षणा मानते हैं, क्योंकि यहाँ 'आनय' रूप वाक्याथ में मुख्यार्थ (लम्बकर्ण) संवलित लक्ष्यार्थ (व्यक्तिविशेष) का अन्वय होता है । लक्षणा के इन दोनों उदाहरणों में प्रयोजन (व्यङ्गय) कुछ भी नहीं है; इसलिए स्पष्ट है कि लक्षण-लक्षणा की तरह उपादान-लक्षणा का भी 'निरूढा-लक्षणा' नामक भेद होता है।
इस प्रकार पूर्वोक्त पंक्तियों की व्याख्या इस रूप में की जानी चाहिए। इस नयी व्याख्या के अनुसार "गौरनुबन्ध्यः" में उपादान-लक्षणा क्यों नहीं है यह बताया गया है। "नात्र" इत्यादि पंक्ति में "गौरनुबन्ध्यः" में लक्षणाभाव का कारण बताया गया है । प्रयोजन नहीं होने के कारण यहाँ लक्षणा नहीं है । प्रयोजन उपादानता के प्रयोजक उस धर्म को कहते हैं जो शक्यार्थ का दूसरे पदार्थ (लक्ष्यार्थ) के साथ अन्वय-बोधात्मक है।
उपादान-लक्षणा में "कुन्ताः प्रविशन्ति" इत्यादि स्थल में पुरुष के प्रवेश के साथ अन्वय-बोध के लिए पुरुष में लक्षणा है। गौरनुबन्ध्यः यहाँ तो जाति का अनुबन्धन क्रिया में अन्वयबोध के लिए व्यक्ति में लक्षणा नहीं (मानी गयी) है इसके विपरीत शक्यार्थ जाति के अनुबन्धन में अन्वयाभाव के लिए ही लक्षणा करते हैं। इस लिए