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काव्यप्रकाशः
व्यक्त्यविनाभावित्वात्तु जात्या व्यक्तिराक्षिप्यते ।
यथा - 'क्रियताम्' इत्यत्र कर्ता । ' कुरु' इत्यत्र कर्म । 'प्रविश', 'पिण्डीम्' इत्यादी 'गृह', 'भक्षय' इत्यादि च ।
हि 'कुन्ताः प्रविशन्ती' त्यादौ कुन्तस्य प्रवेशान्वयबोधार्थं पुरुषे लक्षणा, न चात्र जातेरनुबन्धनान्वयबोधार्थं व्यक्तौ लक्षणा, अपि तु जातेरनुबन्धनान्वयाभावार्थमेवेति नेयमुपादानलक्षणेत्यर्थः । 'गौनित्ये 'त्यत्र शक्य व्यक्तेर्जातिविशेषणतया भानेऽप्युपादानलक्षणानभ्युपगमात् 'छत्रिण' इत्यत्राव्याप्तेश्च न शक्यविशेषण बोधजनकत्वं तल्लक्षणमिति भावः । ननु लक्षणलक्षणा नेयमित्युक्तम्, उपादानलक्षणाऽपि चेन्न, तथा सति किमत्र नैयायिकादिवच्छक्तिरेवेत्यत आह- नवेति, रूढिः शक्तिः आनन्त्यव्यभिचाररूपदोषस्योक्तत्वादिति भाव इत्यस्मन्मनीषोन्मिषति । नन्वेवं कथं व्यक्तिभानमित्यत आह
किन्त्विति, व्यक्त्यविनाभावित्वादिति । ननु 'गो- गोत्वयोः' सामानाधिकरण्याभावात् कथमत्र व्याप्तिरिति चेद, न । तादात्म्येन व्यक्तेराश्रये समवायेन गोत्वस्याश्रितत्वाद् यत्र ' गोत्वं सा गौरिं 'ति
(यहाँ ) उपादान लक्षणा नहीं है । "गौनित्या" गाय नित्य है, यहाँ शक्यार्थं व्यक्ति का जाति के विशेषण के रूप में भान (बोध) होने पर भी उपादान लक्षणा नहीं मानी गयी है इसलिए; और 'छत्रिणों यान्ति' यहाँ अव्याप्ति-दोष होने के कारण “शक्यविशेषण कबोधजनकत्वम्" अर्थात् जिस बोध में शक्य विशेषण हो, उस बोध के जनक को उपादान - लक्षणा का लक्षण नहीं माना जा सकता। इस तरह 'गोरनुबन्ध्यः' यहाँ उपादान लक्षणा का अभाव बताया गया है ।
यह "गौरनुबन्ध्यः" लक्षण-लक्षणा नहीं है और उपादान लक्षणा भी नहीं है तो क्या यहाँ नैयायिकादि की तरह शक्ति ही है ? इस प्रश्न का समाधान देते हुए कहते है - "न वा रूढिरियम्” अर्थात् यहाँ रूढि या शक्ति भी नहीं है क्योंकि रूढ़ि या शक्ति मानने पर आनन्त्य और व्यभिचार दोष हो जायगा; जैसा कि व्यक्ति पक्ष के खण्डन के समय किया गया है । मेरी बुद्धि के अनुसार पूर्वोक्त पंक्तियों का यह तात्पर्य दिखाई पड़ता है ।
अच्छा, यह बताइये कि व्यक्ति का भान कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हुए लिखते हैं "किन्त्विति" "व्यक्त्यविनाभावित्वादिति ।" अर्थात् व्यक्ति के बिना जाति रह नहीं सकती है इसलिए (अविनाभाव ) के कारण जाति से व्यक्ति का अनुमान (आक्षेप ) किया जाता है। जैसे "पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते" देवदत्त मोटा है; परन्तु दिन में नहीं खाता है, इस उदाहरण में जैसे रात्रि भोजन का आक्षेप किया जाता उसी प्रकार "गौरनुबन्ध्यः " में
जाति से व्यक्ति का आक्षेप होता है (यह लक्षणा का उदाहरण नहीं है ) ।
यदि आप पूछें कि गो (व्यक्ति) और गोत्व जाति दोनों में सामानाधिकरण्य के न होने से व्याप्ति कैसे है ? अर्थात् व्याप्ति के लिए एकाधिकरणवृत्तिता का होना आवश्यक है और आक्षेप के लिए व्याप्ति आवश्यक है । इसलिए यदि "गौरनुबन्ध्यः" में जाति से व्यक्ति का आक्षेप मानते हैं तो जाति और व्यक्ति - समानाधिकरण्य होना आवश्यक है | अतः बताइये कि गो व्यक्ति और जाति में सामानाधिकरण्य कैसे सिद्ध करेंगे ?
तादात्म्य-सम्बन्ध से गो व्यक्ति गो में रहता है, क्योंकि गो व्यक्ति और गो अभिन्न हैं; इस तरह गो व्यक्ति का आश्रय तादात्म्य-सम्बन्ध से गो व्यक्ति हुआ; उसी गो में गोत्व-जाति समवाय - सम्बन्ध से रहती है इस तरह गो व्यक्ति और जाति दोनों का आश्रय ठहरता है । समान अधिकरण (आश्रय) में रहने के कारण “गो और गो व्यक्ति" में सामानाधिकरण्य का अभाव नहीं है; अपितु सामानाधिकरण्य ही है । "यत्र गोत्वम् सा गौ:" इस रूप में धर्म और धर्मी में व्याप्ति मानी गयी है। इस लिए वहाँ व्याप्ति का अभाव नहीं है; किन्तु व्याप्ति है । यह " किन्तु " "व्यक्त्यविनाभावित्वात् " इस ग्रन्थ का आशय है ।
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