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द्वितीय उल्लासः
णकपुरुषविशेष्यकबोधानुभवेन तदनुपपादनात्, शकटारूढानां छत्राणां निश्छत्राणामेव पुरुषादीनां च समानकाले गमने छत्रिणो यान्तीति प्रयोगापत्तेरनाकाङ्क्षादोषानुद्वाराच्चेति चेद्, अत्र वदन्ति
यथा पुष्पवन्तादिस्थले एकयैव शक्त्या चन्द्रत्वसूर्यत्वाभ्यां प्रकाराभ्यां बोध्यते शक्यतावच्छेदकता च व्यासज्यवृत्तिरिति केवलचन्द्रत्वादिप्रकारकबोधो लक्षणयव तथा छत्रपदस्य छत्रत्वे शक्यतावच्छेदकत्वमव्यासज्यवृत्ति, लक्षणा तूभाभ्यां छत्रत्वच्छत्राभावत्वाभ्यामिति लक्ष्यतावच्छेदकत्वं व्यासज्यवृत्ति, एवं चोभाभ्यां रूपाभ्यामुपस्थितमुभयं यथायोग्यमन्वेतीति न काऽप्यनुपपत्तिरिति । ग्रन्थकारमते तु 'कुन्ता' इत्यत्र लक्ष्यताऽव्यासज्यवृत्ति: 'छत्रिण' इत्यत्र च व्यासज्यवृत्तिर्लक्ष्यतावच्छेदकता'त्वव्यासज्यवृत्तिरुभयत्रापि, कन्तत्वेनैव कन्तधरस्य च्छत्रत्वेनैव च च्छत्रतदभावयोरुपस्थितेरित्यवधेयम् । न चैव शक्त्या छत्रस्य लक्षणया तदभावस्योपस्थितिरित्येव कुतो नाऽद्रियत इति वाच्यम्, तथा सति तयोरस्वार्थ का त्याग नहीं होने के कारण अजहतस्वार्था लक्षणा है। लक्षणा में जो अजहतस्वार्थता आती है अर्थात् लक्षणा जो अजहत्स्वार्था कहलाती है इसका कारण है उसका (लक्षणा का) शक्यार्थ और लक्ष्यार्थ उभय-साधारण-धर्ममूलक होना"। यह मणिकार का मत भी ठीक नहीं है क्योंकि 'छत्रिणो यान्ति' में जो बोध होता है उस बोध में छत्र विशेषण है और पुरुष विशेष्य । इस तरह अनुभवसिद्ध छत्र विशेषणकपुरुषविशेष्यक बोध में चेतनाचेतनसाधारण एक साथ गमन का उपपादन नहीं होता। एक बात और-यदि मणिकार की रीति का अवलम्बन किया जाय तो जहाँ छत्री और अच्छत्री दोनों के गमन का देश एक नहीं है, वहाँ भी लक्षणा हो जायगी; वहाँ लक्षणा के रोकने का कोई प्रयास मणिकार के मत में नहीं दिखाई पड़ता । जहाँ छत्रधारी शकट (गाड़ी) पर और अच्छत्रधारी पुरुष (पैदल) एककाल में जा रहे होंगे, वहाँ भी 'छत्रिणो यान्ति' इस प्रकार का प्रयोग होने लग जायगा?
"मनार्थ तक की प्रतीति जब लक्षणा से हो जायगी तब 'यान्ति' के साथ निराकाक्ष होने के कारण अन्वय नहीं होगा।" इस पूर्वोक्त दोष के उद्धार का प्रयास मणिकार ने नहीं किया है इसलिए 'छत्रिणो यान्ति' में पूर्वोक्त रीति से लक्षणा मानने पर दिये गये दोष के निवारण के लिए कहते हैं
पुष्पवन्तादि शब्द के प्रयोग स्थल में जैसे सूर्यत्व-प्रकारक और चन्द्रत्व-प्रकारक बोध एक ही शक्ति से होता है। इसी लिए 'अमरकोष' में कहा गया है "एकयोक्त्या पुष्पवन्तौ दिवाकर-निशाकरौं" । अर्थात् 'पुष्पवन्त' शब्द जिस तरह एक ही शक्ति से सूर्य और चन्द्र दोनों का बोध कराता है, अतः वहाँ शक्यतावच्छेदकता व्यासज्यवृत्ति है अर्थात् चन्द्रत्व और सूर्यत्व दोनों में मिलकर रहती है, किसी एक में पूर्णरूप से या पर्याप्तरूप में नहीं रहती है। इसलिए केवल चन्द्रत्व-प्रकारक बोध अर्थात् 'पृष्पवन्त' शब्द से केवल चन्द्र अर्थ की प्रतीति लक्षणा से ही सम्भव है; उसी प्रकार छत्र पद का शक्यतावच्छेदक छत्रत्व है। छत्रत्व में छत्र पद की शक्यतावच्छेदकता पूर्ण रूप में रहती है इसलिए छत्रत्व में शक्यतावच्छेदकत्व अव्यासज्यवृत्ति है किन्तु लक्षणा के द्वारा जो यहाँ बोध हुआ है, वह बोध छत्रत्व और छत्रात्त्वाभावत्व दोनों रूपों से हुआ है। इसलिए यहाँ लक्ष्यतावच्छेदक छत्रत्व-सहित छत्रत्वाभावत्व है यह दोनों में से किसी एक में पूर्णरूप से नहीं रहता, इसलिए वह व्यासज्यवृत्ति है। इस तरह दोनों रूपों से उपस्थित दोनों योग्यता के अनुसार अन्वित होते हैं।
ग्रन्थकार के मतानुसार "कुन्ताः प्रविशन्ति" यहाँ लक्ष्यता "अव्यासज्यवृत्ति" है; क्योंकि वह लक्ष्यता, केवल कुन्तधारी में विद्यमान है। अर्थात् यहाँ लक्ष्यार्थ कुन्तधारी है। इसलिए लक्ष्यार्थ का आश्रय केवल कुन्तधारी होगा। इस प्रकार एकनिष्ठ धर्म होने के कारण "कुन्ताः" में रहनेवाली लक्ष्यता को अव्यासज्यवृत्ति-धर्म माना गया, किन्तु "छत्रिणो यान्ति" की स्थिति इससे विपरीत है। छत्रसहित तथा छत्ररहित पुरुषों को देखकर यह वाक्य-प्रयुक्त
१. अवच्छेदकता तु अव्यासज्य इति छेदः।