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Chichikhalth
न्यायादिमतेऽपि जात्यादेः शक्तिविषयत्वे गौरवम् । तस्माद् व्यक्तिपक्ष एव क्षोदक्षमः, अव्यापकस्यानुमितिविषयत्वेऽतिप्रसङ्गस्य व्यापकतावच्छेदकत्वेनेव, अशक्यस्यापि शाब्दबोधविषयत्वेऽतिप्रसङ्गस्य शक्यतावच्छेदकत्वेनैव निरासात् कथमन्यथा लक्ष्यतावच्छेदकोपस्थितिः, ? नहि तत्रापि लक्षणा, ननु व्यापकतावच्छेदकेन समं व्याप्तेरभावाल्लक्ष्यतावच्छेदके संयुक्तसमवायादिरूपस्य लक्ष्ये च संयोगात्मकस्य सम्बन्धस्यैक्याभावाद् लक्षणाद्वयस्वीकारे स्वतन्त्रोभयोपस्थितिप्रसङ्गाच्च तदुभयत्र नियामकान्तर स्वीकारोऽस्तु शक्तिस्तु वाग्देवताविज्ञानादिरूपाऽतिरिक्तपदार्थरूपा वा विशिष्टगोचरिकैवेति नियतोपस्थित्यर्थं विशिष्ट एवं साऽस्त्विति चेदु, मैवं । व्यापकतालक्ष्यतावच्छेदकोपस्थितिनिमित्तक्लृप्तोपायान्तरेणैव शक्यतावच्छेदकोपस्थितिसम्भवे शक्तावप्यवच्छेदकविषयत्वकल्पनायां गौरवात् । न चोक्तबाधकेन यद्धर्मावच्छिन्ने व्यापकताग्रहः स धर्मोऽव्यापकोऽपि भासते, एवं यद्धर्मावच्छिन्ने शक्यसम्बन्धग्रहः स धर्मोऽलक्ष्योऽपि भासत इति नियमद्वय कल्पनेऽपि तृतीयनियमस्याक्लृप्तत्वाद् नैकोपायतात्रितय साधारणकनियमाभावादिति वाच्यम्, आकाशादिपदेऽशक्यस्यापि शब्दाश्रयत्वादेर्भानात् तृतीयनियमस्याप्यवश्य
जैसे अव्यापक के अनुमिति - विषयत्वरूप अतिप्रसङ्ग के निवारण के लिए व्यापकतावच्छेदकत्वेन उपस्थित को ही अनुमिति- विषय माना जाय ऐसा मानते हैं; उसी तरह अशक्य को शाब्दबोधविषयत्वरूप अतिप्रसङ्ग के निवारण के लिए शक्यतावच्छेदकत्वेन उपस्थित का ही शाब्दबोध में प्रवेश हो ऐसा माना जाना आवश्यक है अन्यथा लक्ष्यतावच्छेदकत्वेन (उद्देश्यतावच्छेदकत्वेन) सकल घट की उपस्थिति हो ही नहीं सकेगी। इस तरह व्यक्ति में शक्ति मानने पर भी सकल-घट की उपस्थिति शक्यतावच्छेदकत्वेन सम्भव है ।
घटत्वेन सकल घट की उपस्थिति के लिए भी लक्षणा नहीं मानी जा सकती । ( वह तो व्यक्ति में मानी जा चुकी है ।) और व्यापकतावच्छेदक के साथ व्याप्ति के अभाव के कारण, लक्ष्यतावच्छेदक ( उद्देश्यतावच्छेदक ) घटत्व के साथ संयुक्तसमवाय- सम्बन्ध और लक्ष्य (घट) के साथ संयोग-सम्बन्ध होने के कारण एक सम्बन्ध के अभाव होने से दो लक्षणा स्वीकार करने पर दोनों के स्वतन्त्रतया उपस्थितिरूप दोष के निवारण के लिए दोनों में कोई अन्य नियामक स्वीकार करेंगे, पर शक्ति को तो वाग्देवता के विज्ञानादिस्वरूप अथवा कोई अतिरिक्त पदार्थरूप ही मानेंगे, वह शक्ति घटत्वविशिष्ट घट होने से विशिष्टगोचरा ही होगी। इस तरह नियतोपस्थिति के लिए विशिष्ट में ही शक्ति माननी चाहिए ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि व्यापकतावच्छेदक और लक्ष्यतावच्छेदक की उपस्थिति के लिए कल्पित उपायान्तर से ही जब शक्यतावच्छेदक की उपस्थिति सम्भव है तो शक्ति में भी अवच्छेदक विषयत्व की कल्पना में गौरव होगा ।
उक्त (गौरव रूप) बाधा के कारण यद्धर्मावच्छिन्न में व्यापकता का बोध हुआ है, वह अव्यापक होकर भी भासित होगा तथा इसी तरह यद्धर्मावच्छिन्न में शक्यसम्बन्धग्रह हुआ है, वह धर्म अलक्ष्य होते हुए भी भासित हो, इस तरह के दो नियम मानने पर भी कोई तीसरा और नियम हो सकता है; जिसकी कल्पना नहीं की गयी है, इस प्रकार एक उपाय की कमी शेष रह ही जाती है। ऐसा कोई एक नियम बनाया नहीं जा सकता; जो तीनों जगह लागू हो; ऐसा नहीं कहना चाहिए | क्योंकि आकाशादि पद में शब्दाश्रयरूप अशक्य अर्थ का भी भान हो रहा है; इसलिए कोई तीसरा नियम भी अवश्य कल्पित करना होगा और इस तरह विशिष्ट शक्तिवाद को निर्दोष नहीं कहा जा सकता । सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति के कारण व्यक्ति, शक्तिवाद में यह दोष नहीं होता; क्योंकि एक घट व्यक्ति के बोध के बाद घटत्वरूप सामान्य को आधार बना कर सकलघट का बोध हो जायगा । जातिशक्तिवाद में भी सामान्य लक्षणा - प्रत्यासत्ति मानना आवश्यक ही है; अन्यथा तदादि सर्वनाम पद से जब धर्मान्तर ( घटत्वादि) विशिष्ट (घटादि) में शक्तिग्रह होने के कारण धर्मान्तर (घटत्वादि) विशिष्ट पदार्थ (घटादि) ही शाब्दबोध का विषय बनेगा तब बुद्धिस्थ पदार्थ