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व्यक्तेरपि शक्तिग्रहविषयतया तद्विषयत्वाविशेषाज्जातिमात्रविषयत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वे विनिगमनाविरहः । भट्टमते च जातेरेव शक्यत्वे गोपदाद् व्यक्तिभानानुपपत्तिः, व्यक्तिजात्योः सामानाधि
काव्यप्रकाशः
भट्ट मत भी दोष से खाली नहीं है। भट्ट के अनुसार जाति ही शक्य है, व्यक्ति नहीं, फिर यह समस्या रह जाती है कि गोपद से 'गाम् आनय' में व्यक्तिबोध कैसे होता है ? यदि यह कहें कि जाति से व्यक्ति का आक्षेप हो जाता है, तो यह प्रश्न उठ खड़ा होगा कि आक्षेप के लिए व्याप्ति आवश्यक है । जैसे 'पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुङ्क्ते' यहाँ 'यत्र यत्र भोजनत्वं तत्र तत्र पीनत्वम्' इस प्रकार का व्याप्तिग्रह है, इसलिए पीनत्व को देखकर रात्रि भोजन का आक्षेप होता है। इस तरह 'यत्र यत्र व्यक्तिः तत्र तत्र जाति:' इस प्रकार की व्याप्ति यदि रहती तो जाति से व्यक्ति का आक्षेप होता परन्तु वैसी व्याप्ति है ही नहीं। क्योंकि राम एक व्यक्ति है पर वह जाति नहीं है । इसतरह जाति और व्यक्ति में समानाधिकरणत्व नहीं होने के कारण व्याप्ति के अभाव में जाति से व्यक्ति का आपेक्ष नहीं हो सकेगा । किसी तरह तादात्म्यसम्बन्ध से व्याप्तिग्रह सिद्ध करने पर यदि जाति से व्यक्ति का आपेक्ष हो भी जाय तो भी (भट्ट मत में) व्यक्ति को शब्दार्थं नहीं किन्तु आक्षेपार्थं मानने के कारण " गाम् आनय" इत्यादि स्थल में विभवत्यर्थं संख्या और कर्मादि कारक का व्यक्ति ( गो व्यक्ति) के साथ अन्वय नहीं हो सकेगा, क्योंकि 'सु औ जस्' इत्यादि विभक्तियाँ प्रकृत्यर्थं से अन्वित अपने अर्थ को बताती हैं इस प्रकार का सिद्धान्त है । यदि व्यक्ति को शब्दार्थं नहीं मानें तो व्यक्ति प्रकृति ( गो प्रकृति) का अर्थ ही नहीं है फिर उसका विभक्ति के अर्थ के साथ अन्वय ही नहीं हो सकेगा ।
तस्मात्तद्वानेव पदार्थः । ननु कोऽयं तद्वान्नाम ? उच्यते, नेवन्तानिदिश्यमानशावलेयादिविशेषस्तद्वान्, न च सर्वस्त्रैलोक्यवर्ती व्यक्तिव्रातस्तद्वान् किन्तु सामान्याश्रयः कश्चिदनुल्लिखितशाबलेयादिविशेषस्तद्वानित्युच्यते, सामान्याश्रयत्वाच्च नानन्त्यव्यभिचारयोस्तत्रावसरः । ' ( न्यायमञ्जरी, पृ० २६६ )
अभिप्राय यह है कि नैयायिकों के मत में न केवल जाति में शक्तिग्रह माना जा सकता है और न केवल व्यक्ति में । केवल व्यक्ति में सङ्केतग्रह मानने से आनन्त्य और व्यभिचार दोष आते हैं तो केवल जाति में शक्तिग्रह मानने पर शब्द से केवल जाति की उपस्थिति होने के कारण व्यक्ति का भान शब्द से नहीं हो सकता है। जाति में शक्ति मानकर यदि व्यक्ति का भान आक्षेप से माना जाय तो उसका शाब्द-बोध में अन्वय नहीं हो सकेगा। क्योंकि 'शाब्दी हि आकाङ्क्षा शब्देनैव पूर्वते' इस सिद्धान्त के अनुसार शब्द-शक्ति से लभ्य अर्थ का हो शाब्दबोध में अन्वय हो सकता है । आक्षेप लभ्य अर्थ शाब्द- बोध में अन्वित नहीं हो सकता है । इसीलिये नैयायिकों के मतानुसार केवल व्यक्ति या केवल जाति किसी एक में शक्तिग्रह नहीं माना जा सकता। इसलिये 'व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थ:' [ न्यायसूत्र २,२,६८ ] 'जाति तथा आकृति से विशिष्ट व्यक्ति पद का अर्थ होता है' यह नैयायिक सिद्धान्त है। इसके अनुसार 'जातिविशिष्ट व्यक्ति में सङ्केतग्रह मानना चाहिये यह नैयायिकमत है और इसी बात को ग्रन्थकार ने 'तद्वान् ' शब्दार्थ : - कहकर व्यक्त किया है। बौद्धदर्शनकारों के अनुसार 'पदार्थ' का स्वरूप जाति अथवा व्यक्ति आदि कुछ नहीं है अपि तु, 'अपोह'
रूप है
'या च मूमिविकल्पानां स एव विषयो गिराम् । अत एव हि शब्दार्थ मन्यापोहं प्रचक्षते ॥' बाह्यानुमेयार्थवादी बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार 'अपोह' के अभिप्राय को जयन्तभट्ट ने इस प्रकार स्पष्ट
किया है
'यद्यपि विधिरूपेण गौरश्व इति तेषां प्रवृत्तिस्तथापि नीतिविदोऽन्यापोह विषयानेव तान् व्यवस्थापयन्ति' यथोक्तं- 'व्याख्यातारः खल्वेनं विवेचयन्ति न व्यवहर्त्तारः' इति । सोऽयं नान्तरो न बाह्योऽन्य एव कश्चिदारोपित आकारी व्यावृत्तिच्छायायोगादपोहशब्दार्थ उच्यते, इतीय मसत्ख्यातिवादगर्भा सरणिः ।'