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काव्यप्रकाशः
डित्थपदवाच्यत्वमित्याह-बालवृद्धति, । न च तथा सति डित्थशब्दस्यैव तदर्थत्वव्यवहारापत्तिः, घटमानयेत्यत्र घटस्येव डित्थमानयेत्यत्र डित्थशब्दानयनप्रतीत्यापत्तिश्चेति वाच्यम्, घटमानये त्यत्र जातेरानयनबाधे तदाश्रयघटस्येवात्र तदाश्रयशब्दस्यापि तद्बाधे तद्वतोऽर्थस्यार्थत्वव्यवहारानयनान्वययोः सम्भवात् । घटं पश्येत्यत्र व डित्थं पश्येत्यत्रापि डिस्थपिण्डेऽवलोकनान्वयसम्भवाद, अन्यथाऽऽकाशादिपदे जातिशब्दत्वानुपपत्तिः, शब्दाश्रयत्वघटकशब्दनिष्ठशब्दत्वजाति विनाऽन्यस्य तत्राभावादिति भावः ।
ननु वक्तृणामानन्त्येन तज्जन्यतावच्छेदकजातीनामप्यानन्त्ये व्यक्तिशक्त्युक्तदोषापत्तिरित्यस्वरसादाह-प्रतिक्षणमिति । जातिपदस्य यावद्वस्तुसम्बन्धिधर्मपरतया शब्दतत्समवाययोनित्यतया च व्यक्तेरपि शक्तिग्रहविषयतया तद्विषयत्वाविशेषाज्जातिमात्रविषयत्वस्य कारणतावच्छेदकत्वे विनि गमनाविरहः । भट्टमते च जातेरेव शक्यत्वे गोपदाद् व्यक्तिभानानुपपत्तिः, व्यक्तिजात्योः सामानाधि
में प्रयुक्त 'वा' शब्द का अर्थ 'विकल्प' है सदृश नहीं। इस तरह डित्थ पद का वाच्य है डित्थादि शब्द-वृत्तिजाति अर्थात् डित्थादि शब्द में रहने वाली जाति ही डित्थादि पद का अर्थ है। डित्थत्व जाति की सिद्धि 'वक्तृशरीरजन्यतावच्छेदकतया होती है। अर्थात् वक्ता (बाल, वृद्ध, तोता आदि, के शरीर में बोलते समय डित्थ शब्द का प्रादुर्भाव होता है, वे डित्य शब्द एक नहीं है अनेक हैं उन सभी जन्य डित्य शब्दों में कोई एकजन्यतावच्छेदक धर्म होना चाहिए, वह है डित्यत्व । इसी बात को "बालवृद्धशुकाधुदीरितेषु" इत्यादि पंक्तियों में कहते हैं।
डित्थ-शब्दवर्ती जाति को यदि डित्य शब्द का वाच्य मानेंगे तो व्यवहार में डित्थ शब्द ही डिस्थ का शब्दार्थ होगा । जैसे गोवृत्तिजाति गोत्व को जब शब्दार्थ माना जाता है तो “गामानय" इत्यादि व्यवहार में उस गोत्वजाति का आश्रय गो ही शब्दार्थ बनता है इसी तरह डित्थशब्दवर्तिनी जाति डित्थत्व को शक्यार्थ मानने पर उस जाति के आश्रय डित्थ शब्द में तदर्थत्व (डित्थ-शब्दार्थत्व) का व्यवहार होना चाहिए। इस प्रकार "घटमानय" कहने पर घटत्वजाति के आनयन को असंभव जानकर जैसे उक्त वाक्य का व्यावहारिक अर्थ जाति न होकर जात्याश्रय होता है और घट (व्यक्ति) का आनयन अर्थ लिया जाता है उसी प्रकार "डित्यमानय" कहने पर डित्थरूप अर्थ का पानयन असंभव होने के कारण डित्थत्वाश्रय डिन्थ शब्द का आनयन इस प्रकार के अनन्वित धर्म की प्रतीति होने लगेगी; ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि "घटमानय" कहने पर जैसे जाति के आनयन में बाधा देखकर तदाश्रय (जात्याश्रय व्यक्ति) का बोध होता है, इसी प्रकार डित्थत्वाश्रय डित्य शब्द के आनयन में बाधा देखकर तद्वान अर्थात् डित्थशब्दवान्-डित्यशब्दप्रतिपाद्य =डित्थ पिण्ड-डित्य शब्द का वाच्य बन जायगा और उसके आनयन में किसी प्रकार की बाधा न होने से व्यवहार भी यथावत् रहेगा।
तथा 'घटं पश्य' यहां जाति में घट शब्द को शक्य मानने पर घट जाति के दर्शन को असंभव मानकर जैसे 'घट व्यक्ति को देखो' ऐसा अर्थ किया जाता है उसी प्रकार डित्थ पद का डित्थशब्दवृत्ति जाति 'डित्थत्व' अर्थ का 'डित्थं पश्य' में दर्शन-क्रिया के साथ अन्वय में बाधा आने पर डित्थ-पिण्ड के साथ अन्वय हो जायगा। अन्यथा यदि शब्दनिष्ठ जाति को शक्य न माने तो आकाशपद में भी जातिशब्दत्व नहीं माना जायगा क्योंकि आकाशपद में शब्दाश्रयत्वघटक जो शब्द है उसमें रहनेवाली शब्दत्व जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति या धर्म वहाँ है ही नहीं।
डित्यादि शब्द के वक्ता अनन्त हैं इसलिए वक्ता के शरीर में प्रादुर्भूत डित्थ शब्द भी अनन्त होंगे और उन अनन्त डित्थ शब्दों में रहने वाली जन्यतावच्छेदकजाति (डित्थत्व) भी अनन्त होगी, इस प्रकार व्यक्तिपक्ष के समान उक्त दोष (आनन्त्य और व्यभिचार दोष) हो जायगा। इस प्रश्न का उत्तर देते हए लिखते हैं 'प्रतिक्षणं भिद्यमानेषु ।' अर्थात् जातिपद का तात्पर्य 'यावद्वस्तुसम्बन्धिधर्म' किया गया है शब्द और उसका समवाय-सम्बन्ध दोनों नित्य हैं इसलिए शब्द-समवायित्व आकाश पद में भी है इसलिए कोई अनुपपत्ति नहीं होगी। अष्टद्रव्यभिन्न-द्रव्यत्व आकाश में भी है, इसलिए कोई दोष नहीं होगा।