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काव्यप्रकाशः
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यत्तु पचे रूपादिपरावृत्तिरूपा विक्लित्तिर्गमेरुत्तरसंयोगः, पतेरधःसंयोगः, त्यजेविभागो हन्तेर्मरणमर्थो लाघवाद् न तूक्तरूपफलजनकाधःसन्तापनादिापारः गौरवात्, एवमन्यत्रापि फलमेव तद्गतसामान्यमेव वा जन्यतावच्छेदकतया सिद्धं धात्वर्थ इति मण्डनाचार्यमतम्, तन्न । व्यापारविगमे फलदशायां पचति ददाति गच्छतीत्यादिप्रयोगप्रसङ्गाद्, व्यापारकाले पचतीत्यादिप्रयोगानापत्तेः स्पन्दजन्यसंयोगविभागाश्रयत्वेनाकाशो गच्छति पतति त्यजति इत्यादि प्रयोगापत्तेः, ओदनकामः पचेतेत्यत्र रूप अर्थ, इस अर्थ में जनकतावच्छेदक कोई न कोई धर्म मानना पड़ेगा और वह होगा पाकत्व, इस तरह पाकत्वसामान्य की सिद्धि होगी। तात्पर्य यह है कि जितने कार्य हैं उन सबके कुछ न कुछ कारण हैं, जैसे घर एक कार्य है और कुम्भकार उसका कारण है। कार्यतावच्छेदक धर्म है घटत्व और कारणावच्छेदक धर्म है कुम्भकारत्व । इसलिए अनुमान करते हैं कि "घटनिरूपिता या कुम्भकारनिष्ठा कारणता सा किञ्चिद् धर्मावच्छिन्ना, कारणतात्वाद् या या कारणता. सा किञ्चिद्धर्मावच्छिन्ना भवति यथा पटनिष्ठकार्यतानिरूपित-तन्तुनिष्ठकारणता तन्तुत्वावच्छिन्ना भवति ।" अर्थात् पट कार्य के कारण तन्तु में जो कारणता है; वह जैसे तन्तुत्व सामान्यधर्म से अवच्छिन्न है उसी प्रकार पचधात्वर्थ अधःसन्तापन में रूप, रस, गन्धादि-परिवर्तन के प्रति जो कारणता है उसे किसी धर्म से अवच्छिन्न होना चाहिए; वह धर्म पाकत्वसामान्य ही हो सकता है।
इसी प्रकार गम् धातु के अर्थ स्पन्द में उत्तर-देशसंयोगजनकता है स्पन्द(Mooving) और रस के बाद व्यक्ति अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है इसलिए उत्तरदेश-संयोगरूप कार्य का जनक स्पन्दरूप गम्-धात्वर्थ हुआ, इस लिए उसमें कुछ न कुछ जनकतावच्छेदक धर्म होना चाहिए और वह धर्म गमनत्वसामान्य ही हो सकता है।
इसी तरह, “यजति, ददाति और जुहोति" क्रिया भी अदृष्ट फल की जननी है इसलिए तो इन क्रियाओं के प्रयोग के बाद "इदं न मम" इस संकल्पवाक्य का प्रयोग करते हैं । इससे सिद्ध हुआ कि ये क्रियाएँ उन-उन फल-विशेष को जन्म देती हैं, इसलिए इनमें कुछ-न-कुछ फलजनकतावच्छेदकधर्म मानना चाहिए। वह धर्म यागत्व, दानत्व और हवनत्वरूप सामान्य-धर्म ही होगा। इस तरह क्रियाशब्दों में भी जाति की सिद्धि होती है। पूर्वोक्त क्रियाओं की अपेक्षा अन्यत्र भी इसी प्रकार ऊह करना चाहिए; जिससे वहां भी सामान्यधर्म की सिद्धि हो जाय। 'यत्त पचे' इत्यादि (टीकार्थ)
फलजनकतावच्छेदकतया पाकादिक्रिया में जिस पाकत्वादि सामान्य की सिद्धि की गयी है। वह तभी हो सकती है जब कि फल और व्यापार दोनों धात्वर्थ हों। मण्डनाचार्य ने तो केवल फल को ही धात्वर्थ माना है ऐसी स्थिति में पूर्व ग्रन्थ की असंगति की आशङ्का के समाधान के लिए आगे लिखते हैं 'यत्त'.."इत्यादि ।
मण्डनाचार्य का मत है कि--- 'पच्' धातु का अर्थ है केवल विक्लित्तिरूप फल, रूपादि परावृत्ति ही विक्लित्ति है, गम् घातु का अर्थ भी उत्तरदेश-संयोग है, पत् धातु का अर्थ अधःसंयोग है, त्यज् धातु का अर्थ विभाग है और हन् धातु का अर्थ मरण है। लाघवात् फलमात्र धात्वर्थ मानना चाहिए। गौरव होने के कारण पूर्वोक्त फलों के जनक, अधःसन्तापनादि व्यापार को धात्वर्थ नहीं मानना चाहिए। इस तरह और जगह भी फल को ही या फल में रहने वाले सामान्यधर्म को (जैसे विक्लित्तित्व को) ही जो जन्यतावच्छेदक होने के कारण सिद्ध होता है, धात्वर्थ मानना चाहिए।
परन्तु मण्डनाचार्य का यह मत ठीक नहीं है क्योंकि-यदि व्यापाररहित केवल फल को धात्वर्थ माना जाय तो जहाँ पाकक्रिया समाप्त हो गयी है, किन्तु सीझा हुआ चावल मौजूद है वहाँ विक्लित्तिरूप फल के वर्तमान होने के कारण 'पचति' यह प्रयोग हो जायगा, इसी प्रकार दान का फल और जाने का फल उत्तरदेशसंयोग के वर्तमान रहने पर 'ददाति' और 'गच्छति' यह प्रयोग होने लगेगा।
इसके विपरीत पाकक्रिया के वर्तमान रहने पर भी यदि विक्लित्यादि-फल वर्तमान नहीं है तो 'पचति' यह प्रयोग नहीं होगा। क्योंकि "वर्तमाने लट" का अर्थ है वर्तमानक्रियावृत्तेर्धातोर्लट स्यात्, अर्थात् क्रिया का अर्थ यदि