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द्वितीय उल्लासः
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परमानन्दः, तन्न, 'माए घरोवअरण'मित्यादि प्राकृतोपस्थितार्थस्यापि वाच्यतया ग्रन्थकृता प्रोक्तत्वात् । यत्त्वपभ्रंशस्यानेकविधतया तत्र तत्र शक्तिकल्पनेऽनन्तशक्तिकल्पनागौरवमित्येकत्र व संस्कृते शक्तिरिति । तन्न । संस्कृतत्वभाषात्वादेः शक्ततानवच्छेदकत्वेन तत्तत्पदत्वस्यैव तत्त्वेन लाघवगौरवानवकाशात् । न चापभ्रशे शक्तिभ्रमाद् बोधकत्वम्, विनिगमनाविरहात्, व्यवहारस्य शक्तिग्राहकस्य प्रायशस्तत्र व सत्त्वाच्चेत्यपभ्र शेऽपि शक्तिरित्यालङ्कारिकाः । ।
ननु य एव वाचकः स एव लक्षको व्यञ्जकश्चेतीतरभेदस्य व्यवहारस्य वा साध्यत्वे शब्दत्वस्यैव.
.... किसी का मत है,कि एक संस्कृत शब्द के स्थान में अनेक अपभ्रंश शब्द पाये जाते हैं। इसीलिए भाष्यकार ने कहा है 'एकस्य शब्दस्य बहवोऽअभ्रशाः यथा गौरित्यस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिका इत्येवमादयो बहवोऽपभ्रंशाः ।' अर्थात् एक शब्द के अनेक अपभ्रंश पाये जाते हैं जैसे गौ शब्द के 'गावी गोणी गोता गोपोतलिका' इत्यादि । इसलिए अपभ्रश में शक्ति मानने पर अनेक शक्ति की कल्पना करनी होगी। अत: गौरव होगा। इसलिए एक ही संस्कृत में शक्ति माननी चाहिए? किन्तु यह मत ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्वोक्त गौरव-लाघव तब होता जबकि संस्कृतत्व या भाषात्व को शक्ततावच्छेदक मानते । परन्तु तत्तत्पदत्व को ही शक्ततावच्छेदक मानते हैं इसलिए लाघव और गौरव की कोई गुञ्जाइश ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि किसी भाषा विशेष में यदि शक्ति मानते तब तो संस्कृत में केवल 'गो' शब्द होने के कारण एक शक्ति मानने से लाघव होता और अपभ्रंश में गावी गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि अनेक शब्दों में शक्ति मानने से गौरव होता । परन्तु शक्ति तो पद में मानते हैं; इस लिए गोता अर्थ का शक्यतावच्छेदक गोता पदत्व है और गौणी अर्थ का शक्यतावच्छेदक गोणी पदत्व है, इस तरह गौरव के लिए अवकाश है कहाँ ?
एक बात और है । एक अर्थ के लिए अनेक पर्याय के मिलने से भाषा समृद्ध मानी जाती है । इसलिए यह दषण नहीं है। 'वायु' वाचक शब्द संस्कृत में जितने हैं उतने अपभ्रंश में नहीं हैं। इसलिए पूर्वोक्त प्रकार के लाघवगौरव को प्रश्रय देने पर संस्कृत में शक्ति मानना ही गौरवग्रस्त होगा। यदि यह कहा जाय कि 'अपभ्रंश' शब्द से अर्थबोध शक्तिभ्रम के कारण होता है अर्थात् जैसे अन्धेरी रात में टेढ़ी-मेढ़ी रस्सी से लोगों को सर्पभय उत्पन्न होता है। वहाँ सर्प नहीं रहता, परन्तु सर्प का भ्रम ही भय का कारण बनता है। उसी प्रकार अपभ्रश में बोधकता शक्ति नहीं होती, परन्तु उससे जो बोध होता है उसका कारण है, शक्ति का भ्रम; तो गलत होगा क्योंकि साधु शब्द में शक्ति है और असाधु शब्द में शक्ति नहीं है। इस कथन को सिद्ध करने के लिए कोई युक्ति नहीं है। इसके विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि असाधु शब्द में शक्ति है और साधु शब्द से जो अर्थ की प्रतीति होती है वही भ्रमवश होती है। इसलिए विनिगमना (एक पक्ष को प्रमाणित करने वाली युक्ति) के अभाव में अपभ्रंश से शक्तिभ्रम के कारण अर्थबोध होता है, यह नहीं कहा जा सकता।
शक्ति को ग्रहण कराने वाला जो व्यवहार है, जिसे विद्वान् शक्तिग्राहक उपायों का शिरोमणि बताते हैं. उससे तो प्रायः यही सिद्ध होता है कि अपभ्रंश में ही शक्ति है क्योंकि समाज में प्रचलित भाषा आज अपभ्रंश ही है। इसीलिए संस्कृत पढ़ाने वाले या संस्कृत में लिखित ग्रन्थों की टीका करने वाले दुरूह अर्थों का बोध कराते समय कहते और लिखते हैं-मयूरः 'मोरनाम्ना प्रसिद्धः पक्षिविशेषः ।' इसलिए अपभ्रंश में भी शक्ति मानमा चाहिए, ऐसा आलंकारिकों का मत है।
"सङ्केतितश्चतुर्भेदः" इस कारिका की अवसर-संगति बताते हुए लिखते हैं :-जो शब्द वाचक है; वही लक्षक है और व्यञ्जक भी वही है इस तरह (किसी शब्द में) यदि इतरभेद सिद्ध करना चाहें या व्यवहार को सिद्ध करना चाहें तो शब्दत्वरूप हेतु सब में समानरूप से रहने के कारण सद्धेतू नहीं हो सकेगा। यदि